Friday, March 16, 2012

आंसू चांद की आंखों से नहीं, उसके थन से निकलते हैं दूध बनकर



Iwona Siwek-Front, Polish Artist.



मछली होना दुखद है
गहरे तैरती है फिर भी थाह नहीं पाती

पेड़ को अदृश्‍य हवा हिला देती है
मेरे हाथ नहीं हिला पाते

अथाह और अदृश्‍य में दुख की आपूर्ति है

मैं यहां नहीं होता तो सड़क का एक लैंप पोस्‍ट होता
मेरी आत्‍मा अगर मुझमें नहीं होती
तो जंगल के बहुत भीतर अकेले गिरता झरना होती

बारिश मुझसे ज़्यादा मेरी छतरियों को भाती है
पैदल चलना नृत्‍य की कामना है

छोटा ईश्‍वर दिन में सोता है
सारी रात ति‍तलियों का पीछा करता है

*  *  *

अतीत मातृभूमि है
वर्तमान मेरा निर्वासन
कोई सड़क कोई हवा मेरी मातृभूमि तक नहीं जाती
मैं अनजानी जगहों पर रहता है
श्रेष्‍ठतम रहस्‍य अपनी मासूम दृष्टि से मेरी पीठ पर घावों की भुलभुलैया रचते हैं

तुम्‍हारे जितने अंग मैं देखूंगा
उतनी कोमलता उनमें बरक़रार रहेगी
मेरी दृष्टि गीला उबटन है

जुलाई की बारिश मेरी नींद की गंगा है

पुरानी फ़र्शों पर पड़ी दरारें उनकी प्रतीक्षा हैं
जिन्‍होंने नयेपन में उनसे प्रेम किया था

हर दरार के भीतर कम से कम एक अंधेरा रहता है

पेंसिल का छिलका फूल बनने का हुनर है
टूटी हुई नोंक टूटे सितारों की सगेवाली है

छोटा ईश्‍वर हर अंग से बोलता है
उसके होंठ उपजाऊ हैं चुप का बूटा वहीं हरा खिलता है

*  *  *

मृत्‍यु सबसे शक्‍ितशाली चुंबक है
अपनी कार मैं नहीं चलाता
गंतव्‍य उसे अपनी ओर खींच लेता है

पुरानी छत की खपरैल पर तुम्‍हारे साथ बैठा मैं
दूर से तुम्‍हारी ओर झुके गुंबद की तरह दिखता हूं

नीमरोशनी में अधगीली सड़क पर पानी का डबरा
नदी का शोक है
तुम्‍हारे पदचिह्न ईंट हैं जिन्‍हें जोड़कर मैं अपना घर बनाऊंगा

भाषा के भीतर कुछ शब्‍द मुझे बेतहाशा गुदगुदी करते हैं
तुम्‍हारा संगीत हमेशा मेरी त्‍वचा पर बजता है
तुम्‍हारी आवाज़ के अश्‍व पर बैठ मैं रात के गलियारों से गुज़रता हूं

तुम्‍हें जाना हो तो उस तरह जाना
जैसे गहरी नींद में देह से प्राण जाता है
मौत के बाद भी थिरकती मुस्‍कान शव का सुहाग है

छोटा ईश्‍वर ताउम्र जीने का स्‍वांग करेगा
उम्र के बाद वह तुम्‍हारी गोद में खेला करेगा

*  * *

इमारतें शहरों की उदासी हैं
मैं इस शहर की सबसे ऊंची इमारत की छत पर टहलता हूं
आंसू चांद की आंखों से नहीं, उसके थन से निकलते हैं दूध बनकर
रात का उज्‍ज्‍वल रुदन है चांदनी

धरती और आकाश के बीच बिजली के तार भी रहते हैं

उबलते पानी के भीतर गले रहे चीनी के दाने त्‍वचा की तरह दिखते हैं
बालाखिल्‍य की तरह मैं अपनी भाषा से उल्‍टा लटका हूं
मेरी उम्‍मीदें गमले में उगे जंगल की तरह थीं
मिट्टी में जड़ की तरह धंसा मैं तुममें
जड़ होकर भी मैं चेतन था
इसीलिए चौराहों पर तुम्‍हें दिशाभ्रम होना था

ढलान पर खिला जंगली गुलाब अपने कांटों के बीच कांपता है
मेरी आत्‍मा कांपती है झुटपुटे में प्रकाश की तरह
कुछ दृश्‍यों को मैं सुंदर-सा नहीं बना पाता
चित्रकला की कक्षा में मैं बहुधा अनुपस्थित रहा

अकूत और अबूझ में पीड़ा का बहनापा है

घाव लगने पर छोटा ईश्‍वर सिगरेट सुलगाता है
अ-घाव के दिनों में कंकड़ों का चूरा बना पानी में बहाता है.


*  *  *

('छोटा ईश्‍वर' सीरिज़ की ये कविताएं नीत्‍शे के प्रति मेरा आदर है. आदर अनंत है. सीरिज़ अनादि है.
साथ में लगी पेंटिंग मेरी प्रिय पोलिश चित्रकार इवोना सिवेक-फ्रंट Iwona Siwek-Front की है.) 

6 comments:

sarita sharma said...

मछली होना विस्तार के बावजूद गहराई न होना है.आत्मा अदृश्य पानियों में बहती है.अतीत की पगडंडियों तक यादें ले जाती हैं मगर सब कुछ बदल चुका होता हैकविता में प्रेम की आर्द्रता का बहुत कोमलता से जिक्र किया गया है.दरारों का हरापन और पेंसिल छीलने से बने फूल अंत के बाद की शुरुआत हैं.अंतिम कविता की थीम उदासी है.घाव लगाने पर भी वह मरहम नहीं लगाता है ,बल्कि अच्छे दिनों में कंकड को चूरा बना कर मरहम बनाता है ,फिर बहा देता है.बड़े ईश्वर के बारे में हम निश्चित रूप से कुछ बता नहीं सकते मगर हम सब में मौजूद छोटा ईश्वर रोजमर्रा के सुख दुःख को झेलता विचारों के भवसागर में गोते लगाता रहता है.

वंदना शुक्ला said...

मछली होना दुखद है
गहरे तैरती है फिर भी थाह नहीं पाती

अनुपमा पाठक said...

वाह! बेहद सुन्दर प्रस्तुति!

vandana khanna said...

आपका लिखना दरअसल छोटे ईश्वर का बड़े ईश्वर से बातें करना है...
घाव लगने पर छोटा ईश्‍वर सिगरेट सुलगाता है
अ-घाव के दिनों में कंकड़ों का चूरा बना पानी में बहाता है...
बेहद, बेहद सुंदर...

Unknown said...

गीत जी,यह एक अद्भुत अन्तर्यात्रा है जो भाषा में उलटे लटक कर की जा रही, झुटपुटे के प्रकाश की तरह काँपते हुए.....शानदार कहना भी कम ही होगा.....

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत खूबसूरत!!!!!!!!!!!!!!!!!

-अनु