Wednesday, April 16, 2008

कवि मरता नहीं, वह अपना जीना स्थगित कर देता है...

बहुत शुक्रिया सभी मित्रों का. जो यहां आए, और इन कविताओं के साथ थोड़ा वक़्त गुज़ारा. जगदीप भाई, आप लोगों के क़ाफि़ले में आने की प्रेरणा आप लोगों से ही मिली. शेषनागजी, बहुत बरसों के बाद आपको देखकर अच्‍छा लगा.
प्रत्यक्षा, अशोक जी, अल्‍पना जी और उड़न तश्‍तरी जी का आभार. यक़ीनन, हौसला बढ़ता है. कविता लिखना अकेले होते जाना है, वो भी ऐसे भयानक समय में, जब भाषा को इतना चबा-चबाकर बोला जा रहा है कि वह पराई लगने लगती है. भाषा के बीच चल रही तमाम गलाज़तों के बीच एक कवि भाषा में ही ज़रा-सा अटका हुआ बचा रहता है. जैसे शमशेर की पीली शाम में एक पत्ता सांध्‍य तारक-सा अतल में अटका होता है. जैसे आंख की कोर पर एक आंसू ताउम्र अटका हुआ-सा. किनारे पर अटकी एक सूख रही नदी. नदी जिस-सा बन जाने की इच्छा हम सबकी होती है.
जोशिम और अतुल का भी आभार. जैसा कि वृंदावनी ने लिखा, पेंटिंग यक़ीनन हज़ार बांहों वाली है. पोस्ट करते समय मैं क्रेडिट देना भूल गया. यह एक मित्र कलाकार सिद्धार्थ की पेंटिंग है. रविकुमार जी, आपने मेल करने को कहा है, पर आपका आईडी नहीं है मेरे पास. और अनुवादों के लिए शुक्रिया. अरे हां, अबू ख़ां की बकरी को अच्छा याद दिलाया आपने. मेरी स्मृति से निकल गई थी वह कविता. दुर्भाग्य से कोई प्रति नहीं है उस कविता की मेरे पास. यह नौ-दस साल पहले छपी थी, जब शुरुआत की थी मैंने. कुछ दिनों पहले नागपुर से कवि बसंत त्रिपाठी भी वह कविता मांग रहे थे. एक पुरानी कविता स्मृति का इम्तेहान लेने के लिए ही आती होगी. इसी तरह बैंडिट क्वीन पर लिखी एक कविता भी उस समय बहुत पसंद की गई थी. एक पुरस्कार भी मिला था उस पर. लेकिन उसकी भी कोई प्रति नहीं. न छपी हुई, न रफ़ लिखी. पिछले छह-सात बरसों में इतने शहरों में इतनी बार रहा हूं कि बहुत कुछ खो बैठा हूं. एक शायर अपने खोई और छूटी हुई चीज़ों में ही रहता है हमेशा.
जैसे पाकिस्तान के शायर ज़ीशान साहिल अपनी खोई हुई स्‍पेस को तलाशते रहे; और दो दिन पहले अचानक इस धरती को छोड़ दिया. कल ही पता चला. कराची के एक अस्पताल में सांस लेने में दिक़्क़त होने पर भरती हुए और कुछ घंटों में कूच कर गए. यह पूरे बर्रे-सग़ीर की शायरी को लगा ऐसा झटका है, जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं. वह कितना अज़ीज़ और आला दर्जे का शायर था, इस ब्लॉग पर मेरी पहली पोस्ट से पता चल जाएगा. कविताओं की अपनी डायरी में मैंने पहले सफ़े पर उसकी नज़्म लिखी है, उसी तरह ब्लॉग पर पहली नज़्म उसकी रखना चाहता था मैं.
ज़ीशान से जब मैंने बात की थी, तो मक़सद था पहल के लिए फोन पर उनका एक लंबा इंटरव्यू करना. उन्होंने कहा था, सवाल भेज दो, तब तक थोड़ी संभल जाएगी तबियत. उनके लिए कई सवाल लिखे, पर बिना जवाब दिए गए चले गए वह. एक शायर अपने पीछे कितने अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है....
पिछले दिनों मृत्यु सूचना के रूप में बहुत तेज़ी से आई है मुझ तक. कुछ महीनों पहले मुंबई में कवि भुजंग मेश्राम नहीं रहे. मराठी आदिवासी कविता को उन्होंने एक नया स्वर दिया था. एक पका हुआ स्वर. 45 के आसपास था वह. पहल में चंद्रक्रांत पाटील ने उसे याद किया है. ऋतुराज को जब पहल सम्मान मिला, तो कार्यक्रम की सदारत ज्ञानरंजन जी ने भुजंग से ही कराई थी. एक वरिष्ठ कवि का सम्मान एक युवा कवि के हाथ से.
भुजंग के कुछ ही दिनों बाद मुंबई में ही मराठी कवि अरुण काळे का निधन. भुजंग और अरुण दोनों मराठी कविता के पाये थे. उखड़ गए. नाम्‍या ढसाळ की परंपरा के शायर. जिनके लिए कविता कान में उंगली डालकर नाक से सूंघने का बायस नहीं थी. पिछले पखवाड़े मराठी के ही महान कथाकार बाबुराव बागुल का भी निधन हो गया. 80 के आसपास थे. हिंदी वाले दलित साहित्य के नाम पर दया पवार और लक्ष्‍मण गायकवाड़ को पढ़कर धन्य होते हैं, पर शुरुआत तो बागुल से हुई थी. उनको तो हिंदी में आने ही नहीं दिया गया. भाषा की राजनीति बहुत सारे स्तरों पर काम करती है. भाषा के मैदान में एक लेखक को मारना सबसे सरल होता है. बागुल यानी हमारे आबा ने माटुंगा की रेलवे कॉलोनी से मज़दूरी शुरू की थी. वह मज़दूरी ही करते रहे हमेशा. नौ साल पहले हम उनसे मिलने नासिक गए थे- हम यानी भुजंग, संजय भिसे और मैं. अरुण काळे भी वहीं मिला था पहली बार. गांव के एक छोटे-से झोंपड़नुमा घर में रह रहे आबा के पास बिजली कनेक्शन नहीं था. शायद बिल नहीं भरे जाने के कारण काट दी गई थी. शाम होने पर मोमबत्ती और लालटेन से रोशनी मांगनी पड़ी. पूरी उम्र आबा को आंख और हाड़ फोड़ने पड़े, परिवार का पेट भरने लायक़ कमा लें, इसके लिए, साथी लेखकों और संस्कृतिपुरुषों ने कोई क़सर नहीं छोड़ी थी इस बात में कि आबा टूट कर बिखर जाए. पर आबा कभी नहीं टूटा. अपना हल उसने अपने कांधे के ज़ोर से ही खींचा. उसी आबा को उसी महाराष्ट्र सरकार ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी. बंदूक़ें दग़ रही थीं. नासिक की हर सड़क पर आबा के बड़े-बड़े कटआउट्स लगे थे, पोस्‍टर और होर्डिंग थीं. ऐसा लगा, महाराष्ट्र सरकार आबा की मौत का जश्न मना रही हो. व्यवस्था के लिए अत्यंत ख़तरनाक एक लेखक की मौत का जश्न. वह साहसी थे, इसीलिए सुंदर भी. कुछ मनुष्यों, कुछ स्मृतियों की बहादुरी पहले देखनी चाहिए, उनकी सुंदरता बाद में.
आबा, भुजंग और काळे पर जल्द ही और कुछ. ये सब रुलाते रहते हैं. उनमें ज़ीशान भी शामिल हो गया अब.
ज़ीशान एक साधारण आदमी का नाम नहीं था. उसकी तस्वीरें देखिए यहां पर. हां, वह सिर्फ़ 47 का था... http://www.t2f.biz/zeeshan/index.html
आज महान अभिनेता चार्ली चैपलिन का जन्मदिन भी है. ज़ीशान और चैपलिन के सरोकार भी एक-से थे. दोनों पर कुछ पोस्ट्स जल्‍द ही. अभी तो मैं अपने अख़बार में ज़ीशान पर एक पूरा पेज निकालने की तैयारी कर रहा हूं...

7 comments:

sanjay patel said...

गीत भाई हम पाठकों को कवि जीने का जज़्बा दे जाते हैं… दुनिया के तमाम मरियलपन में एक कविता का ही तो आसरा है…कवि जीते हैं हमारी अच्छाइयों में…नेकियों में और विचार में।चिल्लर कविताएं और उसके बाद आपका ये आलेख किसी कड्क नोट से कम है क्या…मन को मालामाल कर जाता है आपका लिखा।

Alpana Verma said...

'जब भाषा को इतना चबा-चबाकर बोला जा रहा है कि वह पराई लगने लगती है''
क्या खूब कह गए आप गीत जी! सोलह आने सही...
और आप के इस लेख में दर्द छुपा है.जीशान साहब के इंतकाल पर हम सभी को दुःख है..
कोई भी रचनाकार कभी मरता कहाँ है--वह तो जिंदा रहता है हमेशा -अपनी रचनाओं में-

Uday Prakash said...

बहुत ही अच्छा ब्लाग. अजमल कमाल के ही मेल से जीशान के न रहने की दुखद खबर मिली. यह एक बडा आघात है. उनकी कविताएं अब और अधिक स्म्रितियों में गूंजती हैं.

mamta said...

गीत जी आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ और पढ़कर अच्छा लगा।

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna said...

वैतागवाड़ी पर बराबर ही आता हूं। बहुत ही जीवंत सामग्री मिल रही है पढने को। इस जीवंतता को बनाए रखें।

Geet Chaturvedi said...

संजय जी, अल्पना जी, सही बात है. रचनाकार अपने शब्दों के बीच ही जीवित रहता है. अपने पाठकों के भीतर. ज़ीशान विकलांग थे. एक ने पूछा, लगातार पराश्रित रहना डिप्रेस नहीं करता ? जी़शान ने कहा- मुझे मेरी नज़्मों ने बचा रखा है, वरना ऐसे मौक़े बारहा आए.
ये डिप्रेशन कभी भीतर से आता है, तो कभी बाहर वाले हमले कर-करके आपके भीतर रोप जाते हैं. हमारे समय के कई लेखक-शायर ऐसे हमलों के शिकार हैं. न मैं इसका अपवाद हूं, न अंतिम आखेट. हां, ऐसे समय में शब्द ही बचाते हैं और पाठक ही. उदय प्रकाश जी ने तो ये बातें बहुत गहरे तक झेली हैं. उदय जी, शुक्रिया यहां आने का. ममता जी, योगेंद्र जी, उम्मीद है, यहां सस्नेह आते रहेंगे. ज़ीशान की कुछ नज़्में पोस्‍ट कर रहा हूं. ज़रूर पढि़एगा और योग्य लगे, तो कमेंट भी कीजिएगा.

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा लेख लिखा है। यह सच है कि तमाम कवितायें गहरे अवसाद में साथ देती हैं। बाबुराव बागुल
के बारे में जानकारी के साथ उनकी कोई कहानी पढ़वायें।