अभी कुछ दिनों पहले मंगलेश डबराल जी से बात हो रही थी, तो अचानक पोलिश कवि एडम ज़गायेव्स्की का जि़क्र हो आया। तब से ज़गायेव्स्की की कविताएं ज़ेहन में आ रही थीं। दरअसल, मंगलेश जी हर साल नीदरलैंड में होने वाले रॉटरडम कविता महोत्सव में इस साल भारत की ओर से जाने वाले हैं। ज़गायेव्स्की वहां पोलैंड का प्रतिनिधित्व करेंगे। मैंने उन्हें बताया कि ज़गायेव्स्की मेरे प्रिय कवि हैं। उन्होंने भी यही बात कही. और तब हमने टेलीफोन पर ही इस कविता को याद किया. यह ज़गायेव्स्की के शुरुआती दिनों की कविता है, जब वह बहुत तीखे तेवर वाले कवि थे। वह अब दर्शन की ओर मुड़ गए हैं।
ख़ैर, यह कविता पढ़ें। इसके कई पाठ हैं। यह साधारण को असाधारण तरीक़े से व्यक्त करती है. बुराई को समाप्त करने के पॉपुलर तरीक़े को ख़ारिज करती हुई. और ऐसे समय में तो इसे पढ़ना और भी ज़रूरी है, जब सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता पर हिटलर से ज़्यादा बारीक हमले हो रहे हों. जब तानाशाह और अत्याचारी के पास अपनी कोई शक्ल न हो और वह हर पड़ोसी की शक्ल में आपके सामने हो, अभेद्य कुटिल मुस्कान के साथ स्वागत करता हुआ. व्यक्ति और प्रवृत्ति के बीच की कुटिलताओं का फ़र्क़ बताता हुआ.
आप पढ़ें और इसका विश्लेषण ख़ुद ही करें। यह ज़गायेव्स्की के कविता संग्रह 'सेलेक्टेड पोएम्स' से ली गई है.
मैंने हिटलर को मारा था
अब तो काफ़ी समय गुज़र गया : मैं अब बूढ़ा हो गया हूं। मुझे बता देना चाहिए कि 1937 की गर्मियों में हेस्से नाम के छोटे से क़स्बे में क्या हुआ था। मैंने हिटलर का क़त्ल कर दिया था.
मैं एक डच हूं, बुकबाइंडर, कुछ बरसों से रिटायर। तीस की उम्र में मैं उस समय की त्रासद यूरोपीय राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखता था। लेकिन मेरी पत्नी यहूदी थी और राजनीति में मेरी दिलचस्पी बहुत अकादमिक कि़स्म की नहीं थी। मैंने तय किया कि हिटलर का सफ़ाया मैं ही करूंगा, किसी निशानची के सधे निशाने के साथ, उसी तरह जैसे किसी किताब को किया जाता है बाइंड। और मैंने किया भी।
मुझे पता था कि हिटलर गर्मियों में अपने एक छोटे-से झुंड के साथ तफ़रीह करना पसंद करता है, ख़ासकर बिना सुरक्षाकर्मियों के, और फिर वह छोटे-छोटे गांवों में रुकता है, ख़ासकर पेड़ों की छांव में बने खुले रेस्तराओं में। ज़्यादा गहराई में क्या जाना। मैं सिर्फ़ इतना कहूंगा कि मैंने उसे गोली मार दी और वहां से भागने में कामयाब रहा।
वह उमस-भरा रविवार था, तूफ़ान आधे रास्ते में था और मधुमक्खियां लड़खड़ाते भटक रही थीं, जैसे उन्होंने पी रखी हो.
विशाल पेड़ों के नीचे ढंका-तुपा था रेस्तरां। ज़मीन को गिट्टियों-कंकड़ों से ढांप रखा गया था।
लगभग अंधेरा हो चुका था, और माहौल इतना उनींदा और बोझिल था कि ट्रिगर दबाने में भी काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी। शराब की एक बोतल लुढ़क गई थी और सफ़ेद काग़ज़ के मेज़पोश पर ख़ून का लाल धब्बा फैल रहा था।
उसके बाद मैं अपनी छोटी-सी कार में किसी हैवान की तरह भागा। हालांकि मेरे पीछे कोई नहीं पड़ा था। अब तक तूफ़ान आ चुका था, तेज़ बरसात होने लगी।
रास्ते में पड़ी कंटीली झाडि़यों में मैंने अपनी बंदूक़ फेंक दी। मैंने दो बगुलों को भी मारके बहा दिया, जो छोटे-छोटे क़दमों से भाग रहे थे, अजीब तरीक़े से। ज़्यादा तफ़्सील में क्यों जाना?
मैं विजयी होकर घर लौटा। मैंने विग को फाड़कर फेंक दिया, अपने कपड़ों को जला दिया, अपनी कार धो डाली।
और यह सब कुछ बिना मतलब के, क्योंकि अगली सुबह कोई दूसरा, हूबहू उसके जैसा, नखशिख वैसा ही, उसकी जगह बैठ गया, जो शायद उससे भी ज़्यादा क्रूर था, जिसे मैं मार आया था।
अख़बारों ने कभी उस क़त्ल का जि़क्र तक नहीं किया। एक आदमी साफ़ हो गया था, दूसरा प्रकट हो गया था।
उस दिन बादल पूरी तरह काले थे, खांड की तरह चिपचिपे।
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12 comments:
इसे कविता कहने की क्या वजह हो सकती है? फिर कहानी का स्वरूप क्या है? गद्य कविता की नरमी भी इसमें नहीं है, न ही लय.
इस कविता में वही ऊब झलकती है जो अल्बेयर कामू के उपन्यास 'ला स्त्रेंजर' में समुद्र किनारे अरब को गोली से उडाते वक्त झलकी थी. नायक बाद में ज्यूरी के सामने कहता है कि गरमी ज्यादा थी और उमस भी, शायद इस वजह से ऐसा हो गया.
गद्य कविता के कहानीनुमा रूप में एक विडंबना का बहुत मार्मिक चित्रण है ये । एक सुंदर कविता से परिचय कराने के लिए धन्यवाद
इस कविता को पढ़कर मुझे शिम्बोर्स्का की 'हिटलर का पहला फ़ोटोग्राफ़' कविता लगातार याद आती रही अलबत्ता अपने प्रारूप और कथन में वह इस कविता से कहीं फ़र्क है.
ख़ैर, अच्छी कविता पढ़ाने का शुक्रिया.
काहें डेरवा रहे हैं भाई? अइसा-अइसा कवि पकरि के ला रहे हैं जेनका नामौं तक नहीं सुना ससुरा। पहले उ पाकिस्तानी सायर, और अब ई पुलिस कवि। लागत हौ पछिमी पोथी बहुतै चांपै हौ, तईं हिंदिहौ की बात कई ल. हिंदी के लइका लोक डरि जइहें भैया। जेन डरावा। हे बबुआ, सुनत हव?
पर कविता बडी जबरजोर है। अपने खजाने से और निकालो। इसी बहाने हम पढ लिया करेंगे।
वैसे, ऐसी कहानी जैसी कविता कभी नहीं पढी मैंने. श्री विजय शंकर का सवाल जायज है.
लेखन भा गया.
कहानी और कविता की बहस में मैं नहीं घुसना चाहता। हाँ, ज़गायेवस्की साहब ने जो लिखा, वह आज के दौर के लिए और भी सार्थक है।
और यह सब कुछ बिना मतलब के, क्योंकि अगली सुबह कोई दूसरा, हूबहू उसके जैसा, नखशिख वैसा ही, उसकी जगह बैठ गया,
शायद टाइपिंग में कुछ गड़बड़ी रह गई, जिससे कविता के रूप में नहीं छप पाई यह।
गीत जी, आपको यहाँ देखकर अच्छा लगा। लिखते रहिए।
गौरव जी, अतुल जी, पांडे जी, यूनुस जी, आप सभी का शुक्रिया.
विजय जी, अब आप भी ऐसा सवाल करेंगे? गद्य कविता तो बहुत रूखड़ी होती है, उसमें लय और नरमी क्या खोजना? इस पर कुछ कहूंगा, तो उपदेश लगेगा,(जबकि पोएटिक्स में आप खुद ही माहिर हैं) लेकिन शायद यह अभी तक पता नहीं किया जा सका है कि कितने प्रतिशत नरमी डालने से गद्य कविता में बदल जाता है, और कितना रूखापन डालने से कविता गद्य में. वैसे, साठ और सत्तर के दशक की यूरोपीय कविता 'महान रूखे गद्य' से भरी पड़ी है.
शेष जी, बोली की अच्छी टांग तोड़ी आपने. इतने में ही डर गए? हा हा हा. नहीं भई, ऐसा कोई उद्देश्य नहीं. पढ़ी हुई चीज़ें बार-बार याद आती हैं, सो शेयर कर लेते हैं. हिंदी में आला दर्जे के पढ़े-लिखे लोग हैं, जिनके पास बहुत बड़ा ख़ज़ाना है. हमारी क्या गिनती उनमें.
पांडे जी, यह बात बहुत सही है. इसे पढ़कर सच में शिंबोर्स्का की वह कविता याद आती है. एक अच्छी कविता हमारी स्मृति में और कई अच्छी कविताओं को ताज़ा कर जाती है.
गौरव भाई, टाइपिंग में कोई ग़लती नहीं है. यह कविता कहानी की शैली में ही लिखी गई है, ऐसी बहुत-सी कविताएं हैं. उसी तरह जैसे काफ्का, ब्रूनो शुल्त्ज़ और ब्रेख़्त ने कविता की शैली में कई छोटी-छोटी कहानियां लिखी हैं. हिंदी में हमारे उदय प्रकाश के पास भी ऐसी कई छोटी-छोटी कहानियां हैं.
मुझे भी यह कविता अच्छी लगी है। वैतागवाड़ी में आप बहुत अच्छी चीजें दे रहे हो। इसे जारी रखिए।
चाहे उसे गद्य कहिए या पद्य लेकिन एक जानदार बात शानदार तरीके से कही गई है। धन्यवाद। आपके ब्लॉग से हाल में ही परिचय हुआ है अच्छा लगा अब आना-जाना लगा रहेगा।
गीत, इसे अपनी किसी बात का जवाब न समझना. मैं कहना यह चाहता हूँ कि कंटेंट हमेशा केन्द्रीय और प्रधान होता है, लेकिन उसे प्रस्तुत करने के फ़र्क से ही विधाएं अस्तित्व में आयी हैं. कई बार इन विधाओं का फ़र्क बड़ा झीना होता है.
आधुनिक साहित्य में निबंध प्राचीनतम है. लेकिन ललित निबंध को भी कविता नहीं कहा या माना गया है.
कविता साहित्य की प्राचीनतम विधा है. हर भाषा में पहले इसे तुक, लय छंद और ताल के विधान में बांधा गया, कालांतर में ये बन्धन टूटते गए, और पश्चिमी साहित्य में खासकर, इसने सबसे पहले गद्य कविता का रूप धारण किया. बात प्रतिशत की नहीं है.
हमारे यहाँ भी निराला ने जब छंदमुक्त कविता का शुभारम्भ किया जो वह भारतीय परम्परा से नहीं आयी थी. फिर भी आतंरिक लय की बात कही गयी जो भारतीय परम्परा का निर्वहन था. आगे चलकर प्रयोगवाद के नाम पर जो कविता हुई है उसमें यही रूखापन और गद्य कविता से भी अधिक अनगढ़पन अधिकांश नज़र आया है. वह पूरी तरह असफल रहा. लेकिन हिन्दी कविता का अपूरणीय नुकसान इसने कर डाला. सामान्य पाठक और कविता के बीच खाई खोद कर चला गया यह दौर. यह उसी दौर की बात है जिसका तुमने ज़िक्र किया है. इससे ही सावधान हो जाना चाहिए कि गद्य कविता के नाम पर हम कहाँ तक जा सकते हैं.
वैसे भी मुझे नहीं लगता कि तुमने वह कविता किसी आदर्श के तौर पर प्रस्तुत की है. उसका कंटेंट भी कोई नया नही है, हाँ कहानी का अंदाज़ और कहने का अंदाज़ ध्यान खींचता है. मैं इसी बिन्दु की तरफ तुम्हारा ध्यान खींचना चाहता हूँ कि आखिरकार उस कविता से कविता निकलती है या कहानी.
ख़ुद मंगलेश डबराल और राजेश जोशी ने गद्य कवितायें लिखीं हैं. उनमें मुझे रूखापन नज़र नहीं आता.
पोएटिक्स में मैं माहिर हूँ; कहकर तुमने बिलावजह चने के झाड़ पर चढ़ाने की कोशिश की है. लो मैंने इन बातों से तुम्हारा यह विस्वास भी ग़लत साबित कर दिया.
yeh ek adbhut kavita hai. ismen hatya se jada hatya ka parivesh aur mahol hai.
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