Monday, June 23, 2008
देह और छत के बीच कहीं तैरती नींद
अनलिखी कविताओं में
(ग़ालिब, व्हिटमैन और शिंबोर्स्का के लिए)
मैं लिखता कि
हम अभी भी युद्ध के बीच रहते हैं
यातना कैंप हमारे घर में हैं
आसपास क़ब्रिस्तान
इंतज़ार करती औरतें
और खेल के बाहर रोते बच्चे हैं
छल और कपट
अब तक बीते दिनों की बातों में शामिल नहीं हो पाए
यह योनि यह देह यह भाषा यह देश और ये सारे देव
मैंने अपनी मर्जी़ से नहीं चुने
मैं लिखता कि
इस धरती पर मैं अपने हिस्से के अपराध भी नहीं कर पाया
और सबके हिस्से की सज़ा मुझे दे दी गई
कि पुराने ज़माने में जो काम महाजन करता था
वह अब बैंक करते हैं
घर तक आकर क़र्ज़दार बना जाते हैं
फिर वसूली के लिए गुंडे भेजते हैं
काग़ज़ पर उनकी शर्तें इस तरह होती हैं कि
साक्षरों के लिए भी उसे पढ़ना नामुमकिन होता है
मैं यह लिखता कि
एक औरत को कपड़े न पहनने पर छेड़ा जाता है
एक औरत को पहनने पर
इस सिद्धांत कि-
सोते वक़्त भी जागता रहता है हमारा दिमाग़
को इस तरह लिखता-
जागते वक़्त भी सोता रहता है हमारा दिमाग़
मैं लिखता कि
दक्षिणी ध्रुव अब सुदूर उत्तर में पहुंच गया है
और बारिश के दिनों में न बच्चे गाते हैं न मेंढक
मुझे गुदगुदी नहीं होती अब
मेरी कांखों से पसीना बहता है
पैर की कानी उंगली अब चप्पल से बाहर निकलती है
उन लोगों के नाम लिखता
जिनके हुक्म से हमेशा कांपती थी मेरी स्वतंत्रता
प्यार लिखता उनको
जो मेरी परतंत्रता पर एक धौल जमा जाते थे
उन घडि़यों को ज़रूर कोसता
जो अलार्म के वक़्त से पहले ही बंद पड़ गईं
बिल्कुल
अपने नौसिखिएपन में लिखता
मुमकिन है उन्हें कविताओं की तरह नहीं लिखता
इस तरह लिखता जैसे
लिखा जाता है मनुष्य को
पर उस तरह नहीं
जैसे लिख दिया करते हैं ब्रह्मा
उस भाषा में
जिससे अजनबियों के शब्द समझे जा सकें
जो पीठ पर हाथ बांधे अपनी ज़ुबान और हमारे कान से निराश हो चुके हैं
उस हवा की बहान
जो घास पौधों छोटे पेड़ों और हडि्डयों पर रहम करती है
उस पानी का गुण
जिसके छींटे-भर से टूट जाती है हज़ार बरस की उनींदगी
उनमें उस नींद का जि़क्र होता
जो देह और छत के बीच कहीं तैरती है
वह आंसू होता
जिसके होने का सिर्फ़ अहसास होता है
(2006)
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18 comments:
bahut khub
ब्रेख्त के लिये क्यों नहीं? कविता बहुत अच्छी लगी।
शुभम।
बहुत उम्दा.
bahut badhiyaa
वो नींद तो तैरती है नींद में भी और उसके बाहर भी ..
simborska...lekin unki kavita men jo bahya viwran hain unmen bhi aantrik ekta...kthya ke star pr uski gajab ki antarwyapti hoti hai...yhan aapki kavita ke antim sire pr wh ghatit hota hai...shuru men kavita kuch sfeeti men chali gai...ya yun kahen ki uska arth walay aadyant ko zazb nhi kr ska...
........................
बहुत खूब... ’ऐसे नहीं जैसे लिख दिया जाता है ब्रह्मा’
बहुत अच्छी कविता गीत ! तुम्हारा अपना एक अन्दाज और भीतर कहीं बहुत गहरी तैयारी है, इसलिए सबसे अलग भी दिखते हो !
बहुत खूब!
क्या क्या लिखू इन पंक्तियों के बारे में, कविताओ के बारे में.... हर शब्द एक अलग मायने के साथ रखा गया है...
एक औरत को कपड़े न पहनने पर छेड़ा जाता है
एक औरत को पहनने पर
और भी हैं....
मेरी कांखों से पसीना बहता है
पैर की कानी उंगली अब चप्पल से बाहर निकलती है
बहुत खूब... लाजवाब
बहुत अच्छी लगी यह कविता ...
'कि पुराने ज़माने में जो काम महाजन करता था
वह अब बैंक करते हैं
घर तक आकर क़र्ज़दार बना जाते हैं
फिर वसूली के लिए गुंडे भेजते हैं
काग़ज़ पर उनकी शर्तें इस तरह होती हैं कि
साक्षरों के लिए भी उसे पढ़ना नामुमकिन होता है'
- zara socho, is kavita men uparyukt panktiyaan na hon to? inse badhiya sundar chali aa rahi lay bhee toot rahi hai kyonki ye laainen is kavita ke vansh ki hain hee naheen; ve sapaat kul kee hain. shesh bahut achchhi kavita. fikr bhee gahari hai. badhai!
मैं लिखता कि
इस धरती पर मैं अपने हिस्से के अपराध भी नहीं कर पाया
और सबके हिस्से की सज़ा
मुझे दे दी गई
शायद ९९% मानवता की कथा /कविता
आप ने लिख दी !
-लावण्या
एक कवि ही ढूंढ़ सकता है वह पानी जिससे हजारों बरसों की उनीन्दगी टूट सकती है और एक कवि ही तलाश करता है वह भाषा जिसमें अजनबियों के भी शब्द समझे जा सकें। बधाई कवि भाई।
गीत जी मुझे कुछ कहना तो आता नहीं लेकिन एक ही बात कहूंगा कि कहर बरपा दिया हालांकि कहर सबसे खतनराक शब्द होता है लेकिन इसे में अच्छे में सबसे खतरनाक का नाम ही दूंगा
vijay shankar chaturvediji ne sahi kaha hai....un panktiyo'n ke karan laya toot rahi hai...
इस ब्लॉग पर पहली बार आई। बहुत उम्दा कविता है।
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