Sunday, June 29, 2008

न जुनूं रहा न परी रही, जो रही सो बेख़बरी रही






(जिसके कान की मीठी लौ से सूरज रोशनी उधार लेता है, उसके लिए... रेमेदियोस द ब्यूटी के लिए )


कमरे में न तितलियों की कमी थी, न जुगनुओं की। सुबह होते ही धूप दरवाज़ा बजाती। खिड़की के इकलौते पल्ले पर भड़-भड़ करती। कुनमुनाते हुए दरवाज़ा खुल जाता। कोई सिंथ पर एक साथ उंगली फिरा दे, धूप ऐसे कमरे में घुस आती। दिन-भर तफ़रीह करती एक कमरे के उस फ्लैट में। कभी कोने में गोल होकर बैठ जाती, कभी पलंग के हत्थे पर उकड़ूं। कभी स्केल की तरह लंबी दीवार पर चढ़ती रहती। धूप के साथ बहुत-सी तितलियां आती थीं। उसे लगता, धूप तितली के पंखों में रहती है। तितली पंख फैलाती है, धूप बिखर जाती है। पूरे कमरे में तितलियां होतीं। जैसे पेड़ पर पत्ते नहीं लगते, तितलियां लगा करती हैं। दिन-भर पत्ते टूटते हैं, या तितलियां टूटकर गिरती हैं। उड़ते हुए पत्ते कमरे-भर में फैल जाते हैं, या तितलियां सरसराती हैं। अनगिन तितलियों के बीच वह इकलौते कमरे के इकलौते पलंग पर उतान लेटी होती। उस समय वह रंगों की एक प्लेट होती। हर तितली उस प्लेट से अपने पंख सटाकर उड़ती। और इस तरह वह कमरा रंगों से भर जाता। कभी सिर उठाकर इस तितली को देख लेती, कभी उस को। तितलियां उसके बोलने का इंतज़ार करतीं, फिर लौट जातीं। उनके लौटने से शाम हो जाती। शाम की फि़तरत में मायूस होना इसी लौट जाने से आया।

बग़ल में एक कूलर पड़ा रहता। बिल्कुल मुंह के पास। उसमें कभी पानी नहीं भरा गया था। कभी चलाया गया था, तितलियों को नहीं पता। पंखों के पीछे से उसमें लटके हुए जाले दिख जाते। वह पूरे कमरे की धूल को बुहारती थी। धूल उससे छिपकर वहां बैठ जाती थी। उसे उतान, ख़ामोश लेटा देखती रहती। फिर कूलर की धरती से निकल उसके ऊपर चादर की तरह बिछने लगती।

उसी तरह दरवाज़ा बजाते हुए रात आती। खिड़की का पल्ला अभी भी कुनमुनाता रहता। वह उठकर रात की अगवानी नहीं करती। रात अपने साथ जुगनू लाती। और पूरे कमरे में जुगनू फिरते। उस समय उतान लेटी वह रोशनी का कुआं होती थी। जुगनू उसमें कूद जाते और रोशनी के छींटे यहां-वहां उड़ने लगते। जंगल, खेत, मैदान, झुरमुट, हथेलियों और सपनों में जाने से पहले दुनिया के सारे जुगनू रोशनी के उसी कुएं और कमरे से होकर जाते थे।

रात को कोई भटकी हुई तितली आ जाती, कमरे में अकुलाई चक्कर लगाती, जुगनू उन्हें देखकर चकबक रह जाते। लौटते हुए वह एक बार पीछे देखती। किसी जुगनू को नहीं पता था कि वह एक बार उसके बोलने के इंतज़ार में भटकती है। किसी की चुप को अभिशाप के रंग में अपने पंखों पर सजाए।

ख़ामोश, उतान लेटी वह हरकत करती और धूल की चादर में सलवट पड़ जाती। औचक आए सपने की बारीक लकीर की तरह। वह एक क़हक़हा लगाना चाहती, जिससे शेष डोल जाए। उठकर एक डग भरना चाहती, जिससे सारी मनहूसियत डिग जाए। क़हक़हे का अनुवाद किसी रुदन में हो जाता और डग भरने की इच्‍छा अडिग बेबसी में बदल जाती. कातर आंखें कभी इस जुगनू को देखतीं, कभी उस जुगनू को। जुगनू उसे तितलियों की तरह दिखते, तितलियां जुगनुओं की तरह। उसे क्या चाहिए था दोनों में से? जिसे जुगनू मिलता है, उसे तितली कहां मिलती है? कभी जुगनू उड़ जाता, कभी तितली उड़ जाती. बेशुमार प्रेमकथाओं का अवसाद इसी उड़ जाने से आया. ख़बर-ए-तहिय्युर-ए-इश्क़ सुन, न जुनूं रहा, न परी रही, न तो तू रहा न तो मैं रहा, जो रही सो बेख़बरी रही...

धूल की चादर को खींचकर वह ऊपर कर लेती। ख़ामोश, उतान लेटे हुए अपने माथे पर क़तबा लिखती- मैं धूप की तरह इस दुनिया में हर सुबह आई, फिर अंधेरा बनकर हर रात यहां से चली गई, फिर से धूप बनकर आने के लिए।

हर सुबह एक तितली फूल बनकर और हर रात एक जुगनू मोमबत्ती बनकर उस क़तबे के नीचे बैठा करते हैं।


क़तबा - क़ब्र पर लिखी इबारत, epitaph,
पेंटिंग - फ्रीदा कालो, मेक्सिको

11 comments:

महेन said...

पता नहीं चुप के अभिशाप का रंग उतरता भी है कभी कि नहीं। और यह आने जाने का सिलसिला भी क्या है…
शुभम

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुन्दर!

Pratyaksha said...

padh kara vakai ..jo rahi so bekhabri rahi....

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Beautiful .........

anurag vats said...

bahut achhe...aapke gadya aur padya men sundar aapasdari hai...yh usi se sambhaw hota hai...

पारुल "पुखराज" said...

padhtey padhtey na jaaney kitni jagah mun atkaa..bahut acchha..baar baar padhney jaisaa

Manish Kumar said...

achcha laga titli aur jugnuoon ke beech is post ko padhna..

Anil Pusadkar said...

bemisaal

प्रदीप कांत said...

.jo rahi so bekhabri rahi....

Yah bhi ek khabar hi hai geet bhai

हर सुबह एक तितली फूल बनकर और हर रात एक जुगनू मोमबत्ती बनकर उस क़तबे के नीचे बैठा करते हैं।

shahbaz said...

aapke blog ko pdhna aisa hai jaise rng ud rahe ho, phool jhar rahe ho, ya ke koi bansoori pe koi udas si dhun bja rha ho, y ki shayri si pdh raha hoon......

ravindra vyas said...

bahut achhe!