धूप के कटोरे में पड़ी पानी की बूंदें
भाप बन जाती हैं जैसे
हवा बन जाते हैं मेरे शहर के लोग
शहर एक बुरी हवा था
मुहल्ले-पाड़े जैसे आंच के थपेड़े
बुख़ार के फेफड़ों से निकली
उसांसें थीं गलियां
इन गलियों में
जीवाणुओं की तरह रहते थे लोग
जिनकी आबादी का पता
दंगों, भूकंपों और बम-विस्फोटों में मारे गयों
की तादाद से चलता था
बरामदों में टंगे कपड़े
कपड़े नहीं मनुष्य थे दरअसल
सूखते हुए
इसी तरह जोड़े से छूट गई अकेली चप्पलों, टूटी साइकिलों, बुझ चुकी राहबत्तियों
सेंगदाने की पुल्लियों, गिरकर आकार खो चुके टिफिन बक्सों, उड़ते हुए पुर्जों
चलन खो चुके शब्दों-सिक्कों
और अपने गिरने को बार-बार स्थगित करते
अनाम तारों को भी
मनुष्य मानना चाहिए
सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकियों को भी
इस तरह करें मर्दुमशुमारी
तो उन लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है
जिन्हें हमें मनुष्य मानना है
जितने लोग मरते थे
उतने ही पैदा हो जाते
आम बोलचाल में इसे उम्मीद का
समार्थी कहा जाता
पर जैसा कि मैंने बताया
शहर एक बुरी हवा है
(पानी का जि़क्र तो मैंने किया ही नहीं
पाड़े के नलके पर सिर फूटा करते हैं पानी पर
वो अलग
भले उसे सूखकर हवा बन जाना हो एक दिन
अच्छी, बुरी जैसी भी)
जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है.
17 comments:
bahut sunder rachana
humare dustbin pr nazar inayat
agar wqat ho
regards
यह कविता....जैसे अपनी ही सांस की आवाज को ठहरकर सुनना.
अपने आसपास ...अगल-बगल बार-बार...मुड़-मुड़कर नई निगाह से देखना-जानना, महसूस करना बहुत कुछ.
बधाई हो मित्र.
बरामदों में टंगे कपड़े
कपड़े नहीं मनुष्य थे दरअसल
सूखते हुए
इसी तरह जोड़े से छूट गई अकेली चप्पलों, टूटी साइकिलों, बुझ चुकी राहबत्तियों
सेंगदाने की पुल्लियों, गिरकर आकार खो चुके टिफिन बक्सों, उड़ते हुए पुर्जों
चलन खो चुके शब्दों-सिक्कों
और अपने गिरने को बार-बार स्थगित करते
अनाम तारों को भी
मनुष्य मानना चाहिए
अपने समय के निशान के भीतरी आईने में देखती एक कवि की सचेत निगाह। पीड़ा में घुलती हुई...पीड़ा के साथ अभिव्यक्त होती हुई...
अच्छी लगी कविता गीत भाई। ब्लाग का ले-आउट तो बेजोड होता जा रहा है। बधाई।
अद्भुत रचना...बेहद सटीक शब्दों का विलक्षण प्रयोग किया है आपने...कमाल है..वाह.
नीरज
सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकियों को भी
maheen baat ....bahut acchhii
अच्छी कविता।
बधाई।
कहते है की कवि के पास फेंके जाते है कुछ शब्द .के ले बुन अपना ताना -बाना ओर कह डाल अपने मन की पर ध्यान रखना कागज ओर नही मिलेगी ,स्याही ओर नही मिलेगी....
ऐसी ही है आपकी कविता ...एक चलता फिरता जीवन
गीत जी आपकी कविता मेरे पास है मैं उसको उचित अवसर पर लगाने का मौका तलाश रहा हूं । गोमूत्र को अभी सरसरी तौर पर पहली रीडिंग में पढ़ा है अत: अभी उस पर टिप्पणी नहीं करूंगा । फिर भी मुझे वो दृष्य जब बसूली के लोग नायक की पत्नी का अपमानित कर रहे हैं अंदर तक हिला गया है । स्तब्ध हूं उस द्ष्य के बाद से । पूरा उपन्यास संडे का आराम से दोबारा पढ़ूंगा फिर टिप्पणी करूंगा ।
जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है.
एक यथार्थ चित्रण!!आभार
भई वाह। बेहद सुंदर… आगे क्या कहूँ फिलहाल सूझ नहीं रहा।
इन उखड़ती सांसों का क्या किया जाए गीत भाई
लफ्ज भी हवा मांगते हैं सांस लेने को
थोड़ी स्पेस मांगते हैं जीने को
एक बहुत ही उम्दा कविता ...बहुत वक्त के बाद ऐसी कविता पढ़ी!
कविता में कई जगह जादू है। लेकिन अंत उतना अनंत नहीं हो पाया। शायद आगे भी चलना हो इस कविता को...
kai baar padh chuka hoon. sans ukhad si jaatee hai. comment karne kee himmat bhi nahi hoti
क्या कहूँ सच बयां किया है आपने, उसी शहर मे ही तो हूँ जहाँ कई जिन्दगीयाँ मरती और जन्मती हैं
geet ji aap mujhse anjan hain..lakin aapki lekhni se meri bahut purani jaan pehchaan hai...aapko maine filmon par likhe lekhon se jana...lakin aapki kavitaon se pehchaan aaj hui or late hi sahi lakin badhai bheh rahan hoon...swikaar karai
Avinash Raj Sharma
09868654245
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