Photo : Ana Aden, Swedish photographer |
देह का स्वभाव है तने रहना। आत्मा का स्वभाव है झुके रहना। देह जर्जर होती है, तो झुक जाती है। आत्मा कलुषित होती है, तो तन जाती है। बांह में जितनी मछलियां होंगी, देह उतनी तनती जाएगी। आत्मा में जितनी तरंगें होंगी, वह उतना ही झुकती जाएगी। जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्षण किसी के आगे तनने से नहीं आता, बल्कि तब आता है, जब आत्मा अनायास ही किसी के आगे झुक जाती है और सर्वश्रेष्ठ झुकना वह होता है, जब झुकते समय आपके मन के भीतर इस झुकने के खिलाफ कोई संघर्ष न चल रहा हो। इतना झुको कि उठ जाओ। इतना उठो कि हिमालय छोटा पड़ जाए। गांधी झुके हुए थे। इसीलिए उठे हुए थे। हिटलर तना रहा। इसीलिए गिर गया। साधु तने, तो उनके क्रोध से विपदाएं आईं। सम्राट झुके, तो उनकी करुणा से शांति आई।
कहते हैं, आसमान, धरती से प्रेम करता है। धरती उसे छूने के लिए नहीं उठती, बल्कि आसमान झुकता है। तभी क्षितिज बनता है। आत्मा का झुकना आभासी झुकना है। और तन जाना आभास की नक़ल में किया गया अभ्यास है। ख़ुद को छलना छलनी की तरह है, छेदों से सब-कुछ रिस जाता है, चू जाता है, हथेली में कुछ भी शेष नहीं रह जाता।
प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो। देने वाला झुकता है, मांगने वाला तना रहता है। प्रेम कभी मांगने का विषय ही नहीं रहा। जिसने मांगा, उसने प्रेम को खो दिया। जिसने दिया, उसने जी लिया। देना भाव है। मांगना विचार है। भाव मूल है। विचार पत्तियां हैं। मूल धरती के नीचे बढ़ता जाता है। पत्तियां कुछ दिन हरी रहती हैं और पीली पड़कर गिर जाती हैं। जो ये सोचते हैं कि जीवन में छांव पत्तियों जैसे विचारों के कारण आती है, वे ग़लत हैं। छांव तो रोशनी के कारण आती है। रोशनी न हो, तो आड़ न हो। और आड़ न हो, तो छांव न हो। यानी छांव के मूल में रोशनी है। यानी छांव मूल से आती है, पत्तियों से नहीं।
प्रेम अगर जीवन की छांव है, तो वह विचार से नहीं आता। वह भाव से ही आता है। भाव मूल है, तो दुनिया का कोई भी मूल, कोई भी जड़ आसमान की तरफ़ उठकर अपना विकास नहीं करती, बल्कि जमीन की ओर झुककर, और गहरे खुभकर अपना विकास पाती है। 'मैं तुमसे प्रेम करता हूं', यह मेरा भाव या अनुभूति है। 'मैं तुमसे प्रेम क्यों करता हूं', यह मेरा विचार होगा। 'क्यों' लगते ही तर्क आएगा। जीवन की सबसे बड़ी विपदा यह है कि आपको बार-बार अपनी अनुभूतियों को तर्कों में तब्दील करना होता है।
विचार आक्रांता होते हैं। तर्क आक्रामक होते हैं। वे झपटकर आप पर कब्जा करते हैं। भाव में विनम्रता होती है। वह खुद अपने में इतना झुका होता है कि उसके सामने झुक जाना पड़ता है। हम भाव को स्वीकार करते हैं और उसे विचार में तब्दील कर देते हैं। मादाम बावेरी प्रेम की अपनी इच्छा के भाव से डोली थी और जीवन के जिन क्षणों में वह कारुणिक अडोल हो गई, वे प्रेम की इच्छा के प्रेम के विचार में तब्दील हो जाने के क्षण थे। जब हम पर प्रेम का विचार तारी होता है, तब हम प्रेम पाना चाहते हैं। जब हममें प्रेम का भाव बलवान होता है, हम प्रेम देते हैं, पाने की इच्छा रखे बिना। जब आप अपने प्रेमी का विश्लेषण करने लगते हैं, तो आप विचार की भुलभुलैया में खो जाते हैं। प्रेम करना है, तो अपने प्रेमी को पहचानना बंद कर दो। उसका विश्लेषण करना बंद कर दो। जब उसे पहचानना बंद कर दोगे, तो उसका हर रूप वही होगा, जो आपने अपने भीतर बना रखा है।
मर्लिन मुनरो ने बहुत तड़पकर कहा था, 'अगर तुम मेरे सबसे बुरे रूप को नहीं स्वीकार सकते, तो तुम मेरे सबसे अच्छे रूप के योग्य नहीं।' पहचानना शुरू करोगे, तो हर रूप बुरा रूप लगने लगेगा, क्योंकि अ-पहचान का भाव आते ही संदेह आ जाएगा। सूफि़यों ने अपनी आराधना को कभी भक्ति का नाम नहीं दिया, बल्कि इश्क़ नाम दिया। इश्क़, क्योंकि उन्होंने अपने प्रेमी को पहचानने, जान लेने, बूझ लेने पर ज़ोर नहीं दिया था। जो ख़ुद को जानना बंद कर देता है, प्रेम उसके पास आता है। जो प्रेमी को पहचानने की कोशिशों को बंद कर देता है, प्रेम उसके पास टिका रहता है। पहचानने की कोशिश ही स्वामित्व का बोध पैदा करती है। जहां स्वामित्व का बोध आया, प्रेम नक़ली हो गया, क्योंकि प्रेम तो तमाम मालकियतों के खिलाफ़ अभियान है। मालकियत ख़त्म हो गई, तभी तो बुल्ला अकेला नहीं नाचा था। ख़ुद नाचा था, तो अपने भीतर अपने साई को लेकर भी नाचा था। मालकियत होती, तो साई उसके भीतर न आता।
बुद्ध ने दुनिया को विचार नहीं दिए थे, भाव दिए थे। उन्होंने अधिकतम सवालों के जवाब दिए और कुछ प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ दिया। भाव कुछ प्रश्नों का आचमन उनके अनुत्तर से करता है। तर्क हर प्रश्न का आखेट उसके उत्तर से करता है। प्रेम आखेट से कोसों दूर होता है, जबकि आचमन उसका सबसे क़रीबी पड़ोसी है। आखेट तनने की क्रिया है। आचमन झुकने की संज्ञा है।
(दैनिक भास्कर में 10 सितंबर 2011 को प्रकाशित)
30 comments:
प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो।
प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो।
प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो।
''प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो। देने वाला झुकता है, मांगने वाला तना रहता है। प्रेम कभी मांगने का विषय ही नहीं रहा। जिसने मांगा, उसने प्रेम को खो दिया। जिसने दिया, उसने जी लिया ''
..........बड़ी बात !!!
badi khubsurat baat aapne kahi hai . etna vicharpurwak aapne manan kia hai iske leye aap badhai ke patra hain.
प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो। देने वाला झुकता है, मांगने वाला तना रहता है। प्रेम कभी मांगने का विषय ही नहीं रहा। जिसने मांगा, उसने प्रेम को खो दिया। जिसने दिया, उसने जी लिया। देना भाव है। मांगना विचार है
Aapne kya khub Likha hai. Prem me Paane ki apeksha nahi honi chahiye.Badle me kuch pane ki apeksha se swarth aa jata hai.Prem kewal dene ka naam hai.tabhi to meera Sri Krishna ke prem ki diwani thi...............
भाव में विनम्रता होती है। वह खुद अपने में इतना झुका होता है कि उसके सामने झुक जाना पड़ता है।
well define.
प्रेम आखेट से कोसों दूर होता है, जबकि आचमन उसका सबसे क़रीबी पड़ोसी है। आखेट तनने की क्रिया है। आचमन झुकने की संज्ञा है।
bahut sunder aalekh hai ...
स्वामी विवेकानन्द ने प्रेम को वृहत अर्थो में व्याख्यायित करते हुए कहा है - प्रेम कभी कुछ मांगता नहीं वरन उसका कार्य केवल देना होता है , प्रेम साधन नहीं स्वयं अपना साध्य होता है , और प्रेम सदैव निरभै होता है वह किसी से डरता नहीं !!! तभी तो प्रेम में लेन-देन , मोल-भाव का कोई प्रश्न ही नहीं , केवल अनुभूति की गह्वरता और प्राप्ति की शुन्यावस्था होती है ! अति सुन्दर विवेचन , पढवाने हेतु धन्यवाद !!
स्वामी विवेकानन्द ने प्रेम को वृहत अर्थो में व्याख्यायित करते हुए कहा है - प्रेम कभी कुछ मांगता नहीं वरन उसका कार्य केवल देना होता है , प्रेम साधन नहीं स्वयं अपना साध्य होता है , और प्रेम सदैव निरभै होता है वह किसी से डरता नहीं !!! तभी तो प्रेम में लेन-देन , मोल-भाव का कोई प्रश्न ही नहीं , केवल अनुभूति की गह्वरता और प्राप्ति की शुन्यावस्था होती है ! अति सुन्दर विवेचन , पढवाने हेतु धन्यवाद !!
bahut sundar shabdon mein prem ki vyakhya ki gayi hai. bina pratidan ya kisi shart ke kiya jane wala prem hi saccha hai.vah meera ka ho ya bulle ka ,tulsi ka ho ya soor ka - tarkon ke sabhi hathiyar dalkar man mein aradhya ki lagan lag jati hai..prem bhagwan se ho ya vyakti se usmein aham aur swarth ka koi sthan nahin. doobne wala hi paar utarta hai aur jhukne wala hi uthta hai.prem mooltah bhaw hi hai vichar ya budhi se use samjha nahin ja sakta hai kisse kyon ho jata haisirf kisi ke gunon ya vyaktitav se prabhavit ho kar kiya jane wala prem kabhi sthatyi nahin hota kyonki jaise hi doosra pahlu samne ayega bhram toot jayega.premi ko uske gun doshon ke sath sweekarna chahiye aur uska vishleshan nahin karna chahiye
बहुत सुन्दर और गहरे अर्थ है प्रेम के | बिना डूबे कोई इसकी व्याख्या नहीं कर सकता | गीत जी ने बहुत सुन्दर बात कही | आखेट और आचमन बहुत सुन्दर और गहरी बात |आसमान झुके या धरती उठे बात तो इक ही है | ओशो ने इक स्थान पर कहा है की , प्रेम तो इक व्यक्ति ही करता है और दूसरा उसके नूर से , उसकी आंच से चमकता है | गर आसमान झुक भी रहा है तो धरती के झुकाने से ही | किसी को झुका लेना अपनी और | कोई आसान काम नहीं | क्यों होता है ? और कितना है प्रेम ? इस के भी जवाब कभी किसी को नहीं मिले | और खोजना भी नहीं चाहिए | क्या जरुरत है वजह तलाशने की | गीत जी ने सही कहा पहचानना मत | किसी ने कहा है " परखना मत परखने से कोई अपना नहीं रहता , किसी भी आईने में देर तक इक चेहरा नहीं रहता | हजार तरह के संदेहों ,तर्कों को , बुद्धि को खूंटी पर टांग दीजिये | और डूब जाइए | हर भावना को , हर आंसू को हर पीड़ा को इक ठौर तो चाहिए ही होता है | कवि नीरज ने बहुत सुन्दर बात कही है | " प्यार अगर ना थामता उंगली इस बीमार उमर की | हर पीड़ा वेश्या हो जाती और हर आसूँ आवारा होता |
दार्शनिकों के अनुसार अपने अंदर सत्य की खोज तक तक शुरू नहीं होती, जब तक क्यों सामने नहीं आता। जब यह प्रश्न सामने आता है तो परत दर परत उसके उत्तर भी सामने आने लगते है, जब तक प्रेम करने वाले के समक्ष यह सवाल सामने नहीं आता है कि वह किसी से प्रेम क्यों करता है, तब तक वह देह के तल पर जीता है, इस तल पर प्रेम के साथ घृणा भी चलती रहती है, सवाल सामने आने के बाद सत्य की खोज शुरू होती है, यात्रा का आरंभ देह से होता है और अंत आत्मा में। जब यह पता चल जाता है कि देह विभाजित है परन्तु आत्मा अविभाजित है तो क्यों का जवाब मिल जाता है, तब यात्री को पता चल जाता है कि प्रेम का मूल कारण आत्मा की एकता ही है, जिस क्षण वह समझ जाता है कि उसके और उसके प्रेमी की देह अलग है पर आत्मा एक है, उसी क्षण सत्य की खोज समाप्त हो जाती है और फिर सिर्फ प्रेम रह जाता है, प्रेम के साथ चलने वाली घृणा विदा हो जाती है।
@Vyomkesh,
सत्य की खोज प्रेम की खोज से अलग है. इसी तरह 'क्यों' का शास्त्र भी.
आपकी टिप्पणी में जो चीज़ें पाई जा रही हैं, वे प्रेम का प्राप्य हैं. फिर भी, प्रेम उत्तर में नहीं.
नाम सुंदर है आपका.
इतना झुको कि उठ जाओ। इतना उठो कि हिमालय छोटा पड़ जाए। गांधी झुके हुए थे। इसीलिए उठे हुए थे। हिटलर तना रहा। इसीलिए गिर गया। साधु तने, तो उनके क्रोध से विपदाएं आईं। सम्राट झुके, तो उनकी करुणा से शांति आई।
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बेहतरीन दर्शन
दैनिक भास्कर में पढ़ा आज.
सूत्र पकड लिया है . जो झुकता है वो उठता है .
युद्ध विराम की घोषणा ! :P :P
Thanks GC
GGShaikh said:
गीत जी, प्रेम-भाव पाठशाला का period ही ले लिया हो जैसे आपने तो. पूनम की रात्रि में
वटवृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध की मंडली लगे ज्यों... और तर्क-कूतर्क के बिना अपनी निस्तब्धता में
केवल प्रेम का ही विस्तार हो सचराचर में...अकलुषित... वाह...!
प्रेम ओर भाव को, तर्क की छिछ्ली सतह को अभिव्यक्त करने वाले तो ओर भी होंगे सुखनवर,
पर गीत जी आपका अंदाज़े बयां अजीब सी गति और सहजता लिए होता है... बिना किसी नुक्स के...
जी...
बस लिखते ही चले जाएँ आपकी इस ताज़ा अभिव्यक्ति पर...
GGS - GGShaikh
वन का सर्वश्रेष्ठ क्षण किसी के आगे तनने से नहीं आता, बल्कि तब आता है, जब आत्मा अनायास ही किसी के आगे झुक जाती है और सर्वश्रेष्ठ झुकना वह होता है, जब झुकते समय आपके मन के भीतर इस झुकने के खिलाफ कोई संघर्ष न चल रहा हो।
वन का सर्वश्रेष्ठ क्षण किसी के आगे तनने से नहीं आता, बल्कि तब आता है, जब आत्मा अनायास ही किसी के आगे झुक जाती है और सर्वश्रेष्ठ झुकना वह होता है, जब झुकते समय आपके मन के भीतर इस झुकने के खिलाफ कोई संघर्ष न चल रहा हो।
सिर्फ एक सवाल, कहाँ है ऐसा प्रेम? क्या वस्तुतः ऐसा प्रेम होता है? या प्रेम ही पहचान की बिना पर होता है अब... ये नहीं कि जिससे प्रेम किया उसकी सारी बातें आँखों से लगा के बैठ गए, बल्कि जिसकी अधिकाँश बातें आँखों को भा गयी, प्रेम हो गया...!!! मर्लिन मुनरो ने कहा तो 'सूक्ति' बन गयी... वही बात हमने कही तो 'मज़ाक'...!!!
आसमान, धरती से प्रेम करता है। धरती उसे छूने के लिए नहीं उठती, बल्कि आसमान झुकता है। तभी क्षितिज बनता है। आत्मा का झुकना आभासी झुकना है। ...ati sunder!
बहुत ही बढ़िया व्याख्या की है प्रेम की...बधाई !सर्वश्रेष्ठ झुकना वह होता है, जब झुकते समय आपके मन के भीतर इस झुकने के खिलाफ कोई संघर्ष न चल रहा हो। हम में से अधिकतर लोग झुक तो जाते हैं..मजबूरी वश..मन ही मन क्या क्या पालते रहते हैं..क्यूंकि अन्तःकरण में संघर्ष लगातार चलता रहता है ..जबकि होना यही म्चाहिये कि झुकें तो ऐसे कि कोई भी दुर्भाव ना रह जाए .
kafi dino biyaban me bhatakane ke bad kisi ne prem ko itna sahaj roop me samjhaya hai... apko sadhuwad...
आपके द्वारा यहाँ दिए गए तर्क और दर्शन को प्रयोग की कसौटी पर मैं कस कर देखता हूँ...फिर निर्णय के साथ अपनी प्रतिक्रिया दूंगा..!!
इस लेख ने काफी कुछ समझा दिया......भाव का ही भाव है.......बाकी...... सब अभाव है.......
इतना झुको कि उठ जाओ। इतना उठो कि हिमालय छोटा पड़ जाए। गांधी झुके हुए थे। इसीलिए उठे हुए थे। हिटलर तना रहा। इसीलिए गिर गया। साधु तने, तो उनके क्रोध से विपदाएं आईं। सम्राट झुके, तो उनकी करुणा से शांति आई। . . . ऐसी श्रेष्ठ पंक्तियों और विचारों से संयुक्त है यह लेख । नितांत पठनीय ।
देह का स्वभाव है तने रहना। आत्मा का स्वभाव है झुके रहना।
प्रेम उनके पास कभी नहीं आता, जिनमें झुकने का शऊर न हो।
प्रेम अगर जीवन की छांव है, तो वह विचार से नहीं आता। वह भाव से ही आता है।
आखेट तनने की क्रिया है। आचमन झुकने की संज्ञा है।
यह चंद अमर पंक्तियाँ हैं.हर सत्र में इक ज़िंदगी. और उसकी व्याख्या.अगर लेखक के बारे में पाठक को पता ना हो तो अवश्य ही किसी दार्शनिक का वचन वह समझ ले! कि आश्चर्य नहीं!
मुझे बेहद गिला है कि मैंने इसे इतनी देर बाद क्यों पढ़ा! भास्कर में भी नहीं नज़र पड़ पायी!
s
सुन्दर आलेख!
thanx a lot for this post...each and every line is precious
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