Sunday, October 2, 2011

समकोण : एक नई कविता





आना इमेस, स्‍पैनिश फोटोग्राफर की एक छवि, अनवर्सो


मैं अवलंब था तुम्‍हारा ऐसे ही खड़ा होता तुम पर जैसे समकोण
तुम जगह थी छूट जाए जो तो अधर का अभिशाप है
मेरी मृत्‍यु के बाद भी बने रहना मेरे जीवन में
बही हुई मेरी अस्थियों में स्‍मृतिपुष्‍पों की तरह उगना और नदियों के पानी को सुव‍ासित कर देना
खंभे के नीचे बिछी घास में पाषाणयुगीन अंधड़ों से बनी झुक अब भी बची है जैसे
मोत्‍सार्ट की सिंफनी आइंस्‍टीन की खोज की तरह
सेब तोड़ने बढ़े आदम की देह की उचक की तरह न्‍यूटन के गिरते सेब की तरह
जिस सितारे से प्रेम किया था वर:मिहिर ने और आकलन के कलह में
उसके वास्‍ते एक सटीक नाम न खोज पाया था उसकी तरह
चले जाने के बाद भी चलते ही जाना
ईश्‍वर ने तुम्‍हें मेरी पसलियों से बनाया था
तुम जब भी खिसियाती थीं अवलंबित तुम पर इस आत्‍मा को नोंचती थीं
इस पर तुम्‍हारे नाख़ूनों की खुरच के लंबवत निशान हैं
मेरी आंखों के भीतर रहती हैं तुम्‍हारे साथ बीतीं अनगिन रातें
एक दिन तुमने मुझे ढूंढ़ा ताकि मैं लापता हो जाऊं
तुम वेग हो गांगेय और मैं भी
उतना ही जटिल हूं जितना शिव की जटा
तुम्‍हें थामा, रोपा और धार के पौधे की तरह अपने मस्‍तक पर उगाया
जितना प्रहारोगी मुझे उतना ही खोओगी वेग तुम अपना
बूंद-बूंद धारा-धारा विखंडित हो विसर्जित होगी तुम मुझमें
कितना भी सहेजूं एक दिन तुम्‍हें मैदानों की तरफ़ जाना ही था
जब तक नहीं जाना था तुम्‍हें तुम्‍हारी ओर बहा था महानद की तरह
जैसे ही जाना तुरत कतराया
अबोध दिवसों में ही क्‍यों होता है आनंद का अतुल्‍य खुशी का भंडार
एक दिन एक काग़ज़ पर लिखा -- जान चुका
आईने में उसका प्रतिबिंब बना  -- चुक जाना.



12 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

Nidhi said...

मैं अवलंब था तुम्‍हारा ऐसे ही खड़ा होता तुम पर जैसे समकोण
तुम जगह थी छूट जाए जो तो अधर का अभिशाप है
मेरी मृत्‍यु के बाद भी बने रहना मेरे जीवन में
बही हुई मेरी अस्थियों में स्‍मृतिपुष्‍पों की तरह उगना और नदियों के पानी को सुव‍ासित कर देना....
पराकाष्ठा ....प्रेम की..प्रेम की चाहत की...इच्छा की ..साथ की...बहुत सुन्दर!!

बाबुषा said...

एक दिन एक काग़ज़ पर लिखा -- जान चुका
आईने में उसका प्रतिबिंब बना -- चुक जाना.
hmm.

vandana khanna said...

ईश्‍वर ने तुम्‍हें मेरी पसलियों से बनाया था...

sarita sharma said...

प्रेम की अनूठी अभिव्यक्ति जिसमें प्रेमिका के साथ अनंत काल तक जुड़े रहने की अभिलाषा है. ऐतिहासिक और पौराणिक सन्दर्भों का अवलंब लेकर मृत्यु के पश्चात भी अनुपस्थित जीवन में बचे रहने की कामना गयी है जो वेग को इंगित करते हैं.मोत्‍सार्ट की सिंफनी,आइंस्‍टीन की खोज और शिव की तरह गंगा को थामने ,रोपने और धार के पौधे की तरह अपने मस्‍तक पर उगाने के सर्वथा मौलिक बिम्ब कविता को नई दिशा और गति प्रदान करते हैं. वस्तुतः अबोधपन,कच्चापण और अभेद्य आकर्षण ही सच्चा प्रेम है.सोचने समझने पर ज्यादा जोर देने से भावों की बहती नदी में रूकावट आ जाती है.यह भ्रम क्यों पला जाए कि हमने सब जान लिया है .व्यक्ति हो या ज्ञान - इतने जटिल हैं कि उनके बहुत कम अंश तक हम पहुँच पाते हैं. पहेली के बाद पहेलियों की गुंजलक में उलझे रहना ही जिजीविषा को बनाये रखता है.और प्रेम का विश्लेषण तो किया ही नहीं जा सकता है,उसमें डूबना ही सब कुछ है.

Sushobhit Saktawat said...

वर:मिहिर ने जिस सितारे से प्रेम किया था, किंतु जिसके लिए वह सटीक नाम न खोज पाया था, वह सितारा क्‍या आसमान में अज्ञात लिपियों की तरह अंकित सितारों का सहोदर है? ('जाना सुना मेरा जाना')

अवलंब का समकोण आलंबित के ऋजुत्व से प्रेम करता है या उसे कीलित करता है? या प्रेम का अर्थ ही है कीलित होना, कीलित करना?

जिसे ईश्वर ने पुरुष की एक पसली से बनाया, उसके अस्थियों के स्‍मतिपुष्प बन जाने की आकांक्षा उसके प्रतिक्रमण की आकांक्षा है या उसके अभिशाप की आवत्ति?

वेग की धुरी कहां है? वेग का विपर्यय क्‍या?

विसर्जन विखंडन है तो सर्जना का सत्य क्या?

अबोध और आनंद सहचर क्यों हैं? वेदना का अर्थ बोध भी क्यों होता है और संताप भी क्यों?

जानना अगर चुक जाना है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा अक्षयत्व विस्मरण के एक व्यापक देश में निर्वासित है?

सुशोभित

mamta vyas bhopal said...

इक दिन तुमने मुझे ढूंढा ताकि मैं लापता हो जाऊं | वाह क्या बात है | कितनी सुन्दर और गहरी बात | किसी को हम ताउम्र या तो इसलिए खोजते फिरते है की हम उसमे कहीं खो जाये | या फिर वो हममे लापता हो जाये | किसी में गुम हो जाना इक अलौकिक अनुभूति है | हमेशा के लिए गुम हो जाना बहुत बड़ी बात है | कुछ क्षण के लिए ही गुम हो जाए ये भी कोई छोटी बात नहीं |
कैसे कोई हमारे अन्दर लापता होजाता है| इक बार आते हुए तो उसे देखा था | फिर वो कभी दिखाई नहीं दिया | शायद वो भीतर जाकर कहीं गुम हो गया है मुझमे | या कहीं ऐसा तो नहीं की हम उसमे जाकर लापता हो गए हो ? -बड़े गहरे अर्थ है साहब फिर कभी --...........
हाँ बातों के सिरे जरुर छोड़े जा सकते है | की जिसे पकड़ कर आप अर्थों तक पहुँच जाये | अबोध दिवसों में क्यों होता है आनन्द अतुल्य .....कितना मासूम सा प्रश्न ? और उतना ही जटिल उत्तर जो कोई देता ही नहीं | जानता ही नहीं | अबोध दिवसों में आनन्द है , लेकिन जैसे ही बोध होता है | सब गायब ...कागज पर लिखा --जान चुका ---बहुत सुन्दर बात और आईने में देखा चुक जाना --बहुत बहुत बहुत ही गहरी बात | गीत जी अबकी बार मैं कागज पर लिखुगी चुक जाना --फिर आईने में देखुगी क्या प्रतिबिम्ब बनता है | बहुत सुन्दर बात आपकी |

वंदना शुक्ला said...

निःशब्द .....

डॉ .अनुराग said...

अबोध दिवसों में ही क्‍यों होता है आनंद का अतुल्‍य खुशी का भंडार...

कुछ तो है जो बिन बताये अब भी ईश्वर की मुट्ठी में है ....हे मानव तेरी साइंस से परे !!!!!

अनुपमा पाठक said...

अनूठी अभिव्यक्ति!

monali said...

Ohhh kitni hi alag aur kitni hi jaani jaani si kavita h.. jaise mann ise gun raha tha aur aankho ne aaj paaya to mann ne sun bhi lia.. behad sundar :)

Saumya Sharma said...

i am unable to express the happiness i felt after reading this..so just a small token of appreciation

पलकों के किनारे छुपी ख्वाबों की कत्पुतली,
हिजाब-ए-सूफी ओढ़े चलीं तसव्वरी की सेर पे,
बंद हथेलियों में जकड़े हुए घाफिल का सच,
आवारा फिरता में हो कर खुद से मारूफ़...