Monday, January 9, 2012

वो छह कहानियां






(हंस के दिसंबर 2011 अंक में मेरी दोनों किताबों की समीक्षा आई है. समीक्षा सरिता शर्मा ने लिखी है. उसे यहां लगा रहा हूं ताकि जो हंस नहीं पढ़ते, वे भी इस पर एक नज़र डाल सकें.)


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गीत चतुर्वेदी की लंबी कहानियों में विभिन्‍न कला माध्‍यमों का इस्‍तेमाल करके गढ़ी गई भाषा, अ‍र्थों के अनेक स्‍तर और आपस में गुंथी विषयवस्‍तु और पात्र, उन्‍हें अन्‍य नई कहानियों से अलग स्‍थान प्रदान करते हैं.  उन्‍हें कविता 'मदर इंडिया' के लिए भारत भूषण पुरस्‍कार मिल चुका है और हाल ही में इंडियन एक्‍सप्रेस ने उन्‍हें दस सर्वश्रेष्‍ठ युवा लेखकों में शामिल किया है. 

वह लेखन के पुराने ढर्रे को तोड़ते हुए पाठकों के लिए चुनौती प्रस्‍तुत करते हैं. 

'सावंत आंटी की लड़कियां' कहानी संग्रह में तीन लंबी कहानियां 'सावंत आंटी की लड़कियां', 'सौ किलो का सांप', और 'साहिब है रंगरेज़' में थीम, भाषा और परिवेश की साम्‍यता है. इनमें किरदारों की लगातार आवाजाही होती है.  पहली कहानी के गौण किरदार अगली कहानी के मुख्‍य किरदार हो जाते हैं और मुख्‍य किरदार हाशिये पर चले जाते हैं. निम्‍न मध्‍य वर्ग के मुख्‍य किरदार दरअसल गौण ही होते हैं और अर्थ का विस्‍तार करने पर हम पाते हैं कि हर किस्‍म की प्रमुखता, कई सारी गौणताओं का गुच्‍छा ही होती है. इन कहानियों में शहर के भीतर बसे कस्‍बे-गांव का माहौल है, स्‍त्री की प्रेम की आकांक्षाएं, असफलताएं और उनके जीवन पर फिल्‍मों के प्रभावा के ज़रिए प्रोविंशियल जियोग्राफिक एक्‍सप्रेशन को चित्रित किया गया है. 

'सावंत आंटी की लड़कियां' में युवा होती बेटियों के विवाह के लिए चिंतित माता-पिता और परंपराओं को तोड़कमर प्रेम करके जीवनसाथी का चुनाव करने को आतुर बेटियों को मध्‍यवर्गीय जड़ता के परिवेश में दिखाया गया है. 

नंदू प्रेम की धारणा से इतनी अभिभूत है कि उसका कोई न कोई प्रेम संबंध चलता रहता है. और वह प्रेमी के साथ भाग जाती है. मगर हर बार पकड़ी जाती है. अंतत: उसकी शादी माता-पिता की मर्जी से होती है. दूसरी ओर पढाकू छोटी बहन सुधा खुद को इन झंझटों से दूर रखती है. कहानी के अंत में जब वह भी माता-पिता के चुनाव को धता बताकर प्रेमी के साथ भाग जाती है, तो पड़ोसी, माता-पिता ही नहीं, पाठक भी स्‍तब्‍ध रह जाता है. दो पीढि़यों के बीच की दूरी भी इसका कारण है. पार्वती को हमेशा इस बात का दुख रहता है कि उसके पति को गुस्‍सा क्‍यों नहीं आता ?  'जिस बाप की चार-चार लड़कियां हों और जवान हो गई हों, उस बाप को किसी बात पर गुस्‍सा नहीं आता, यह कैसी शर्मनाक बात है.'  नंदू का प्रेम फिल्‍मों से इतना प्रभावित है कि जब बबल्‍या को उसके पिता ने पीट दिया तो, 'अपने प्रेमी में सतत एक हीरो की तलाश करने वाले नंदू को उससे नफ़रत हो गई'  . यही हाल बंडू जाधव का हुआ-- 'आज वह उसे दुनिया का सबसे बदसूरत इंसान लगा- काला भुजंग. वह पछताने की रात थी. क्‍या देखकर वह उसके साथ भागी थी ? '   निर्णय लेने में आर्थिक स्‍वतंत्रता बहुत महत्‍वपूर्ण है. हेमंत और नंदू कई दिन साथ रहने के बाद भी शादी नहीं कर पाए क्‍योंकि उनमें से कोई भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं था, जबकि सुधा ने अपना निर्णय चुपचाप ले लिया क्‍योंकि उसका क्रिकेटर प्रेमी कमाता था. यह कहानी लड़कियों के मनोजगत और प्रेम की आकांक्षा की कहानी है जिसे नए मुहावरे और मुंबइया भाषा ने बहुत दिलचस्‍प बना दिया है. 

'सौ किलो का सांप' अपेक्षाकृत छोटी होने के बावजूद इतने स्‍तर और अर्थ समेटे हुए है कि आम पाठक के लिए कई अंतर्धाराओं को समझ पाना दुष्‍कर हो सकता है.  इसमें सांप पकड़कर गुजारा करने वाले बंडू नागमोड़े और उसकी बेटी कमला की अनियंत्रित इच्‍छाओं की व्‍यथा-कथा है. यह डार्क ह्यूमर और विडंबनात्‍मक है कि लोगों के सांप काटे से बचाने वाले बंडू के पिता, पत्‍नी और बेटी की मौत का कारण सांप ही बनते हैं. वस्‍तुत: सांप इच्‍छाओं के प्रतीक हैं. हमारी अनियंत्रित इच्‍छाएं, चाहे वे प्रेम की हों या धन पाने की, अंतत: हमें अपना शिकार बना लेती हैं. कमला ख़तरनाक ज़हरीले कोबरा को गले में लटकाकर उससे खेलती है और बदमाश अर्जुन गढ़वाली के साथ शादी करके सुखी जीवन बिताने के सपने देखती है. उसका बलात्‍कार हो जाता है और कोबरा उसे डंस लेता है. प्रतीकात्‍मक रूप से इच्‍छाएं नियंत्रित न करने पर डंस लेती हैं. 

इच्‍छा दोधारी होती है. कहानी की मुख्‍य दृष्टि यही है कि प्रेम विश्‍वासों की बलि ले लेता है. कहानी में बंडू जब सरपंच से जमीन का सौदा करने जाता है तो वहां बुरी तरह पिट जाता है और उसका हुनर दगा दे जाता है. 'वह खुद को किसी थिएटर में महसूस कर रहा है, जहां कोई सस्‍ती फिल्‍म चल रही हो.'   पत्‍नी सखूबाई के साथ खुश रहने के बाद भी बंडू काम करने वाली रमाबाई के साथ शारीरिक संबंध बना लेता है. ' बंडू काका नागमोड़े के दिल में एक औरत रह रही थी. एक औरत वहां रूह की शक्‍ल में थी. एक औरत देह बनकर. एक औरत स्‍मृति थी. एक औरत वर्तमान. एक औरत के साथ उसका रिश्‍ता बहुत पवित्र किस्‍म का था. एक औरत की ओर उसे नज़र नहीं उठानी थी और एक औरत को उसे सिर्फ देह पकडकर उठा देना था.'   शारीरिक आकर्षण और अ‍ात्मिक प्रेम को यहां बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित किया गया है. सांप को भी कहानी के अंत में बहुत सूक्ष्‍म तरीके से जोड़ा गया है.

'साहिब है रंगरेज़' में डिंपा की मां और उसके पति डेविड के प्रेम और नफ़रत भरे रिश्‍ते को घात-‍प्रतिघात के साथ उभारा गया है. डेविड अपनी पत्‍नी से बेहद प्रेम करता है मगर उसके खुलेपन से सशंकित होकर उसकी बुरी तरह पिटाई कर देता है. दांपत्‍य प्रेम की यह कुछ हद तक यथार्थवादी तस्‍वीर है कि पत्‍नी कुछ समय तक प्रतिरोध के बावजूद पति को छोड़ देने के विकल्‍प को नहीं अपनाती है. 

इस कहानी के आयरनी और डार्क ह्यूमर में कहकहे का अनुवाद अक्‍सर विरल रुदन में होने की आशंका बनी रहती है. पिटाई के दृश्‍य में कल्‍पना के मेल से भयावहता और बढ़ जाती है- 'डर के लिहाफ में लिपटकर अनावृत्‍त दौड़ती भव्‍य स्‍त्री. बेल्‍ट लहराते दौड़ते आते पति को बार-बार मुड़कर देखती भव्‍य स्‍त्री. थोड़ी देर पहले तक प्‍यार के महासागर में गोते लगाने के बाद नफ़रत के रंग में पगी भव्‍य स्‍त्री. कुछ देर पहले तक साहिब की छुअन से लाल हुई और उजलेपन से आक्रांत एक भव्‍य स्‍त्री.'  
पीटने के बाद जब डेविड माफी मांग कर पत्‍नी से प्‍यार करता है तो वह सब भूल जाती है. 'साहिब हजार बार मार... हर रोज मार.. तेरा गुस्‍सा.. तेरी मार.. सब सिर माथे है... 

इस कहानी की विषयवस्‍तु यही है कि प्रेम जितना मुक्‍त करता है एक या दोनों को, उतना ही एक लंबी गुलामी भी है. प्रेम, प्रेमी को गुलाम बना देता है. डिंपा की मां डेविड से प्रेम करती है, उसकी हिंसाओं को झेलती है तो अपनी आत्‍मा का पतन महसूस करती है. उसके प्रेम में डूबती है तो अपना आत्‍मा का उत्‍थान पाती है. उसमें दोनों शेड्स हैं. उन दोनों का प्रेम भी उतना ही गहरा है  और एक-दूसरे के प्रति हिंसा भी. इतनी हिंसा के बावजूद वह उसे छोड़कर नहीं जाती क्‍योंकि उसे डेविड से हिंसा मंजूर है. वह प्रेम से बाहर नहीं होना चाहती और यहां आकर प्रेम एक गुलामी में बदल जाता है. ऐसा आर्थिक गुलामी के कारण नहीं है, क्‍योंकि डेविड का अमीर दोस्‍त उसे डिंपा के साथ दुबई ले जाने को तैयार है. वह पिछली कहानी के नंदू से कहती है, 'नंदू, तू तो भाग भी सकती है. उनके बारे में सोचा है कभी, जो अपनी मर्जी का कर भी नहीं पाते.'  कभी-कभी उसे लगता है कि ' उसके भीतर भी थोड़ी सी नंदू सावंत होती, तो अच्‍छा था.' मगर वह मानती है कि डेविड दिल से अच्‍छा है. 

दूसरे कहानी संग्रह 'पिंक स्लिप डैडी' में बाजार, उपभोक्‍तावाद, वैश्‍वीकरण और उदारवाद के मध्‍यवर्ग पर पड़ने वाले दु ष्‍‍परिणामों को बहुत बारीकी से दिखाया गया है.  'गोमूत्र', 'सिमसिम' और 'पिंक स्लिप डैडी' इन तीनों कहानियों के नाय कार्पोरेट जीवन शैली के चलते अकेलेपन और टूटन के शिकार हैं. 

'गोमूत्र' में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था और बाजार की निर्ममता को नायक के अंतर्द्वंद्व और तनाव के माध्‍यम से दर्शाया गया है. इसमें अभावों और लालसाओं से ललचाये मध्‍यवर्ग के सपनों की कटु हकीकत को अतियथार्थ और फैंटेसी का सहारा लेकर व्‍यक्‍त किया है. यह एडम जगायेवस्‍की की कविता 'आग' का भारतीय संदर्भों में पुनर्पाठ भी है. इसका नायक मध्‍यवर्गीय नौकरीपेशा युवक है जो विज्ञापनों को देखकर और पत्‍नी की लालसाओं को पूरा करने के लिए क्रेडिट कार्ड से इतना उधार ले लेता है कि समय से चुका नहीं पाता. बैंकवाले रकम की वसूली के लिए उसे परेशान करने लगते हैं तो वह अपने आसपास के लगभग सभी लोगों को उसी तरह की समस्‍या का सामना करते हुए पाता है. 'जब मैं उधार के बारे में सोचता हूं, तो मुझे मदर इंडिया का सुक्‍खी लाला याद आ जाता है, गोदान का होरी याद आता है.' 

कथावाचक के जीवन में सब कुछ विखंडित है. विज्ञापन हर वस्‍तु को बेचने के लिए औरत का सहारा लेते हैं. व्‍यंग्‍य से कथावाचक कभी पत्‍नी को खाना बनाने वाली तो कभी प्‍यार करने वाली बताता है. वह मध्‍यवर्गीय चालाक व्‍यक्ति है जिसे अर्थव्‍यवस्‍था डिल्‍डो से अधिक कुछ नहीं समझती. वह अपने अफसर बाबा को खुश करने के लिए उसकी बकवास सुनता रहता है मगर बाबा भी उसे डिल्‍डो ही मानता है और जरूरत पड़ने पर उसकी कोई मदद नहीं करता. नायक और बाबा अलग-अलग हैं लेकिन दोनों की छल, पलायन और आत्‍मदारिद्र्य की मानसिकता समान है. हमारी संस्‍कृति पर पाश्‍चात्‍य प्रभाव इतना पड़ गया है कि हम उन जैसे होते जा रहे हैं. यही एकरूपता है. यह कहानी आदमी के 'अहं ब्रह्मास्मि' से 'अहं ब्रांडास्मि' का सफर दर्शाती है जिसमें शिकारी ही शिकार है. मध्‍यवर्ग को संबोधित करते हुए कहा गया है- 'वे सब स्‍टीरियोटिपिकल इमेजेस में ही जिया करते थे, वे सब प्रोटोटाइप थे मेरे वर्ग के, जिसे मध्‍यवर्ग कहा जाता है.'  क्रेडिट कार्ड देने वालों के तर्क सुनकर नायक भ्रमित हो जाता है. 'हम आपको पैसा उधार नहीं देते, बल्कि एक बेहतर जीवन देते हैं.'  आदमी की तकलीफों को भी चैनल वाले बाजार में बेच देते हैं. नायक को बकरा मानते हैं तो वह अपनी लाचारी पर कहता है, 'आप मेरा भी अपमान बेचेंगे टीवी पर. मेरा अपमान, मेरा डर, मेरी घबराहट, मेरी खिसियाहट- सब आपके लिए बिकाऊ है'. 

'सिमसिम' जिंदगी की शुरुआत करते युवक और जीवन के अंत पर खड़े और बदलती दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी संबंधों की कहानी है. कहानी की बुनावट फिल्‍म की पटकथा जैसी है. इसमें प्रेम के प्रति दो पीढि़यों के फर्क को दर्शाया गया है. कहानी में जितने चैप्‍टर हैं, जितने कोट हैं, उतनी ही थीम है, कोई एक केंद्रीय थीम नहीं है. सभी दृश्‍यों की कहानी से बृहत्‍तर कहानी की रचना होती है और हर दृश्‍य कहानी के गल्‍प में विकास करके कथ्‍य धारा को आगे बढ़ाता है. कहानी के आरंभ में नदी के सड़क में बदल जाने का रूपक है.  'नदी जब सड़क बनती है, तो सबसे पहले अपनी रफ्तार खो देती है. जैसे अगले पन्‍नों में चलने वाले ये सारे लोग खो गए.' जीवन और प्रेम नदी की तरह प्रवाहित होता है. सजल नहीं, तो नदी नहीं है. नदी का सूख जाना जीवन और प्रेम का सूख जाना है. कहानी में सारे किरदार अपने जीवन का जल खो बैठे. कहानी में ग्‍लोबलाइजेशन के वर्चस्‍ववादी स्‍वरूप के यथार्थ की भी झलक दिखाई गई है. पृष्‍ठभूमि में एक जर्जर पुस्‍तकालय है जहां कोई किताबें लेने नहीं जाता है. सि‍मसिम दो पीढि़यों, दो ध्‍वनियों, दो समयों,  अतीत और वर्तमान, कल्‍पना और यथार्थ, तथा स्‍वप्‍न और स्‍मृति का रहस्‍य द्वार है जिसका किसी मंत्र से खुलना तय है. एक ही खिड़की वह चाभी है, जो दो अलग-अलग उम्र के लोगों को अलग-अलग आभास देती है. बूढ़ा 52 साल पुरानी लड़की के विस्‍मृत प्रेम को खिड़की पर खड़ी लड़की को देख याद करता है. उसी खिड़की और लड़की को देखकर नई उम्र का लड़का भी सां‍केतिक प्रेम में चला जाता है. इससे स्‍मृति का मूल्‍य और कल्‍पना का अवमूल्‍यन उजागर होता है. दोनों एक साथ प्रेम में हैं. बूढ़ा अपनी स्‍मृति से प्रेम कर रहा है और लड़का अपनी कल्‍पना से. बूढ़े को खिड़की के टूटने पर बहुत दुख होता है क्‍योंकि वह उससे स्‍मृति के तार पर जुड़ा हुआ है. लड़के को खिड़की के टूटने का दुख है लेकिन वह जल्‍द ही उससे बाहर आ जाता है. 

कहानी में शक्‍ित का विमर्श भी है. भूम‍ाफिया के पास शक्ति है, वह उसका उपयोग करता है. राज्‍य के पास पूंजी की शक्ति है. वह विकास के नाम पर विध्‍वंस करता है. सिंधु लाइब्रेरी और दिलखुश समोसे वाले की दुकान को तोड़कर वहां नई इमारतें खड़ी कर दी जाती हैं. यह सिर्फ इमारतों का विध्‍वंस नहीं है, स्‍वप्‍नों, लगावों, स्‍नेहों और जुड़ावों का विध्‍वंस है. राज्‍य को किसी के स्‍नेह से कोई लेना-देना नहीं होता. मंगण की मां अजन्‍मे बेटे को अपने गुड्डे में देखती है और उसे मंगण मानकर उसका ध्‍यान रखती है. बूढ़ा किताबों से बच्‍चों की तरह प्रेम करता है. दिलखुश भी सभी से अच्‍छा बर्ताव करता है, मगर सभी चरित्र त्रासद स्थिति में पहुंच जाते हैं. खिड़की के टूटने पर लड़का, बूढ़े के बारे में सोचता है, 'उस दीवार और खिड़की के टूटने पर जितना भी मलबा बना होगा, मैं उसके चेहरे पर देख सकता हूं.' 

आर्थिक असंगितयों के भावनात्‍मक उत्‍पात और अद्वैत की विषयवस्‍तु अंतिम कहानी 'पिंक स्लिप डैडी' में बहुत उत्‍कटता से उभरकर आती है. यह एक सटायर है जिसमें कार्पोरेट उच्‍च मध्‍य वर्ग की आकांक्षाओं और धूर्तताओं का चित्रण है. नायक प्रफुल्‍ल शशिकांत उर्फ पीएस दाधीच के माध्‍यम से समाज के बाह्य यथार्थ के साथ साथ उसकी मानसिक संरचना भी देखने को मिलती है. कॉर्पोरेट पूंजी के विकास के दुष्‍परिणामों में व्‍यक्ति का जीवन अपने मूल्‍य खो रहा है. इसमें कई धरातल एक साथ चलते हैं जैसे प्रेम, छल, सफलता की कामना, अकेलापन, भ्रम और अलग-थलग पड़ जाने की प्रक्रिया. हर चीज़ को हारजीत में तौला जाता है चाहे वह आपस में बातचीत हो या प्रेम और सेक्‍स के क्षण ही क्‍यों न हों. यही पूरे समाज की सच्‍चाई है. अकेलेपन से बचने के लिए सफलता पाने की किताबें पढ़ी जाती हैं और धर्मगुरुओं की शरण ली जाती है. यहां तक कि आम आदमी को ट्रेनिंग देकर बाकायदा धर्मगुरु बनाया जाता है और उसकी मार्केटिंग की जाती है. टैरो कार्ड रीडर पृशिला पांडे और मदर सेबास्टियन ऐसी ही हाई प्रोफाइल आध्‍यात्मिक गुरु हैं. नायक को विफलता से बचने के लिए सिस्‍टम की हां में हां मिलाकर स्‍टाफ की छंटनी करनी पड़ती है. वह ऐसी दुनिया का हिस्‍सा बन जाता है जहां प्रेम और घृणा के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता. चालाकी, मक्‍कारी, धूर्तता, नाटक का इस्‍तेमाल किया जाता है और ईमानदारी, सचाई, निष्‍ठा जैसे गुण वहां बेकार हैं. पावर पॉलिटिक्‍स और अहम के टकराव का सिलसिला वहां चलता रहता है. नीचे के लोगों की कोई बिसात नहीं. संबंधों की गरिमा और पारिवारिकता को कोई महत्‍व नहीं दिया जाता. संबंधों का इस्‍तेमाल सीढ़ी के रूप में किया जाता है. 

पीएस दाधीच स्प्लिट पर्सनैलिटी का शिकार है. उसके अनेक महिलाओं से संबंध हैं. उसकी पत्‍नी सबीना पाल उसे छोड़कर चली जाती है क्‍योंकि वह पति का उदासीनता और अपने अकेलेपन को बर्दाश्‍त नहीं कर पाती. महिला चरित्रों को बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से विकसित किया गया है. पति के सेक्‍स स्‍कैंडल से हताश मिसेज लाल की चुप्‍पी और अंतत: आत्‍महत्‍या कर लेना, पृशिला पांडे का लोगों को अपने लिए इस्‍तेमाल करना, सबीना लाल का झटके से पति को छोड़ जाना,  अजरा जहांगीर का जोश और सफलता की कामना और उत्‍प्रेक्षा जोशी की प्रेम के प्रति उदासीनता उन्‍हें यादगार बना जाता है.

इस संकलन की सभी कहानियों में एक सूक्ष्‍म अंतर्धारा चलती रहती है जो पाठकों को विचलित करती है. कॉर्पोरेट वर्ल्‍ड की आंतरिक गतिविधियों और निम्‍न मध्‍यवर्ग पर किसी और लेखक ने इतनी गहराई से नहीं लिखा है. इनमें नए मुहावरे गढ़े गए हैं और शब्‍दों का नये ढंग से प्रयोग है जैसे रजकनीति, भ्रमास्मि, ब्रांडास्मि, कर्जयोद्धा. अंतर्वस्‍तु और भाषा में ये कहानियां विलक्षण हैं और पाठकों को चुनौती देती हैं. 

मधु मंगेश कर्णिक की माहिम की खाड़ी की तरह मुंबई के आम लोगों के जीवन को भाषा की रचनात्‍मकता और सामाजिक सरोकारों से लैस करके दिखाया गया है. हालांकि सीधी-सपाट व्‍यक्तिगत अनुभवों पर लिखी गई चुटीली कहानियों के पाठकों को सभी छह कहानियां बहुत लंबी और अत्‍यधिक गूढ़ अर्थों वाली लग सकती हैं मगर मिथकों और दंतकथाओं का उपयोग करके गीत चतुर्वेदी ने कहानियों को पठनीय और प्रवाहमयी बना दिया है. 



2 comments:

Roshan Vikshipt said...

यहां आ कर बेहद अच्‍छा लगा। देरी से पुहचा मगर सहीं पंहुचा। इस पृष्‍ठ पर आ कर आनन्‍द आया।

sarita sharma said...

लगभग २ साल पहले हंस से मुझे सिर्फ सावंत आंटी की लड़कियां समीक्षा के लिए मिली थी.तब अनेक अनुत्तरित प्रश्न मन में थे.सभी स्तर ओर धारणाएं समझ नहीं आई थी.उस समीक्षा को हंस ऑफिस ने कहीं खो दिया.संजीवजी ने दोनों कहानी संकलनों पर नए सिरे से लिखने को कहा.इस बीच फेसबुक पर गीत की रचनाओं पर कमेंट्स लिखने लगी थी.एक एक कहानी पर उनसे जमकर बहस और शंका निवारण के दौर चले.सतही तौर पर जो कुछ अटपटा लग रहा था गहराई में जाने पर वही अर्थपूर्ण लगा.इसके बाद मुझे समीक्षा करने के लिए दिमाग खुला छोड़कर कई अर्थों और स्तरों की तलाश करने की प्रेरणा भी मिली.मगर इतनी मेहनत बहुत कम पुस्तकों के लिए करनी पड़ती है क्योंकि आजकल विरले लेखक ही गीत जितनी गंभीरता से लिख रहे हैं