दिन, तारीख़, महीना याद नहीं। रात थी और चांदनी थी, इतना ज़रूर याद है। 93 की कोई रात। अकेला मूंगफली वाला खोमचा था। मूंगफलियों पर एक कटोरी में सुलगती हुई लकडिय़ां थीं और ग्रैविटी का नियम तोड़ता धुआं। ढिबरीनुमा कोई चीज़ अपने ही धुएं से काली हो रही थी। उसी के पास अपने जूते जमाकर हम नंगे पैर अंधेरे की चट्टानों पर उतर गए। पता नहीं, क्या जमा होता है बैंड स्टैंड की चट्टानों पर कि लाख बचाओ, एकाध बार वे पैरों में चुभ ही जाते हैं। चीरा मारने पर ख़ून की हल्की-सी लकीर रेंगती हुई-सी महसूस होती है।
पीठ पर लदी हुई थकान थी। कुहनियों, पिंडलियों और कमर से थकान की पोटलियां लटकी हुई थीं। हम शाम-भर नाचे थे। उन दिनों बांद्रा में हमारा पसंदीदा थेक था- रॉक अराउंड द क्लॉक। पता नहीं, अब है या नहीं। बांद्रा में ही कॉलेज था। स्टेशन से ही बाहर निकलते, तो सामने ही फलूदे वाला होता था। उसका नाम नहीं, स्वाद याद है। और रंग भी। गुलाबी-केसरिया मिक्स। गिलास के बाहर चिपके हुए फलूदे नयों की नाक चढ़ाते थे। हम आदी थे और स्वाद ले-लेकर सुड़क जाते थे।
नाच की थकान के बाद अमूमन इन चट्टानों पर आकर लेट जाते। आसपास की चट्टानों के नीचे या दाएं या बाएं प्रेमी जोड़े बैठे होते। दुनिया-जहान से दूर। प्रेम और दुख हमेशा निर्जन कोनों में घनीभूत होते हैं। समंदर किसी राग में होता। उसकी आवाज़ से उसका संगीत समझ में आता, लेकिन हम आज तक उसकी राग, उसका ताल नहीं समझ पाए। उसी में हमारी होहराहट का संगीत भी होता। हम कुछ देर लेटे रहे। उठकर कंकड़ चुनकर समंदर में फेंकते रहे। फिर छोटे प्लेयर पर 'गन्स एंड रोजेस' सुनते रहे। लहरों के बीच एक्सल रोज की आवाज़ गूंजती रही। स्लैश का गिटार टुनकता रहा। गिटार की वह आवाज़ अकेलेपन के भटकते हुए पलों में अब भी गूंज-गूंज जाती है।
Talk to me softly
There is something in your eyes
Don't hang your head in sorrow
And please don't cry
I know how you feel inside I've
I've been there before
Somethin is changin' inside you
And don't you know
Don't you cry tonight
I still love you baby
Don't you cry tonight
Don't you cry tonight
There's a heaven above you baby...
लड़कपन का गाना था, किसी प्रार्थना की तरह इसे सुनते थे, आंखें बंद करके, गले में कांटे उगाए हुए, हमने किसी को छोड़ दिया था, या हम सब किसी न किसी के द्वारा छोड़े गए थे और भीतर हो रहे बदलावों पर जैसे ख़ुद से कहते थे- डोंट यू क्राय टुनाइट... हम जिसे कहना चाहते थे, पता नहीं उस तक हमारी बात पहुंचती भी थी कि नहीं, पर स्लैश के एक गहरे आलाप के बाद जब गाना ख़त्म होता था, तो हम खो चुके होते थे, एकाध बार अपने भीतर रो चुके होते थे और आसपास के माहौल को ऐसे देखते थे, जैसे कोई गीली झिल्ली अभी भी दृश्य और दृष्टि के बीच कांपते हुए झूल रही हो...
और इसी बीच तड़ाक की एक आवाज़ उठती है। कोई गूंज बेतहाशा चट्टानों पर दौड़ती है और छपाक से अरब सागर में कूद जाती है। फिर दो-तीन बार और आवाज़ आती है- तड़ाक-तड़ाक-तड़ाक।
हम बौखलाकर खड़े होते हैं। किसी चट्टान से किसी स्त्री के रुदन की आवाज़ आती है। पहले ज़ोर-से, फिर सुबकने की। अंधेरे में किसी पुरुष की आकृति ऊपर उठती है और चट्टानों को फलांगती हुई निकल जाती है। सिसकी बच रहती है।
हम वहां जाकर देखते हैं। एक स्त्री बिखरे हुए बालों के साथ अपना पर्स समेट रही है और मंत्रों की तरह बद-दुआएं बुदबुदा रही है। हममें से एक उस दिशा में दौड़ता है, जहां वह पुरुष गया है। कोई फ़ायदा नहीं।
हम बार-बार उस औरत से पूछते हैं। हमें कोई जवाब नहीं मिलता। उसकी सिसकी बढ़ती है... बढ़ती जाती है। चट्टानों पर चलते-चलते वह सड़क की तरफ़ जा रही है। एक हाथ में पर्स है, दूसरे में लटकती हुई सैंडिलें। अपने पीछे रुदन छोड़ जाती है, जो वहां गूंज रहा है।
हम देर तक सन्नाटे में हैं। लौटकर अपनी चट्टान पर पसर जाते हैं, पत्थरों से छीजी हुई रेत की तरह बिखरे हुए और गीले। वह बिखराव जिंदगी में लौट-लौटकर आता है... समंदर की ढेर सारी यादों, आवाज़ों के साथ नत्थी एक सिसकी... जो पलटकर तकती तक नहीं.
बाब डिलन बेतहाशा याद आता है। हमारी किसी नस को गिटार की तरह छेड़ता-
समंदर क्या है,
सिवाय एक गहरे रुदन के...
23 comments:
समंदर , जुगनू जंगल और डिलन ..सब याद आये ...
बडे दिनों बाद आये... लेकिन शानदार आये... कोमलता है... समंदर और दुख है... दिल के बहुत नजदीक है... वाह...
कतरा है तो समंदर है.
मेरा फेवरेट विषय.
बहुत अच्छा लिखा आपने.
बरेलवी साब का वो शेर याद आगया.
मैं कतरा हूँ मुझे बचाना समंदर की जिम्मेदारी है...............
बेहतरीन.
क्या बोलूं... बहुत सुंदर !!
ऑडियो विजुअल है तुम्हारी यह टिपण्णी। थकान की पोटलियाँ भी दिख रहीं हैं और समुद्र का रुदन भी सुनाई दे रहा है।
मैं हर शाम समंदर के किनारे सुबकता हूं
इसमें घुला है मेरे पुरखों का नमक ।।
समंदर से पुरानी यारी के तहत अपन ने किसी शाम जड़ दिया था ये शेर समंदर के माथे पर ।
अभी तक वहीं चिपका है ।
आपने याद दिला दिया कितने पुराने आंसुओं और उदासी का नमक ।
समंदर एक सनातन रूदन है और शाम एक कायम उदासी ।
गीत, कभी कभी लगता है तेरे पास लिखने की कोई जड़ी-बूटी हाथ लग गई है। तू उसको समय की सिल्ला पर कल्पना से पीसता है, उसमें दुःख का नमक मिलाता और अवसाद की रात में हमें देकर कहता है इसे चखो। और हम पाते हैं कि जीवन का कोई कसैला और तीखा स्वाद आंसू बनकर हमारे ही जख्मों पर गिर रहा है। धीरे-धीरे...बेआवाज...
रवींद्र व्यास, इंदौर
रोचक ..एक साँस में सब पढ़ा गया पहली बार पढ़ा आपका लिखा अच्छा लगा शुक्रिया
Dear Sir
Now I am a fixed reader of your blog.
Very nice piece full of gloom, grief and GOONJ, written with a rare composure.
Great work. Don't you think it could have been a short story?
Ravi
बहुत बढ़िया लिखा. बैंडस्टैंड की चट्टानों और रेत पर पर हमारे भी कई निशाँ छूट गए थे. अब भी ढूंढने जाएं तो उनमें से कुछ अवश्य मिल जायेंगे.
अद्बुत लिखा है। माहौल बनाने रखने के लिए बैंडस्टैंड पर कुछ महीनों पहले घटी एक सच्ची कहानी पेश कर रहा हूं।
अरुण आदित्य ने सही कहा आडियो विसुअल की तरह. सब कुछ साफ साफ दिखने जैसा. बेजोड़
समंदर किसी राग में होता। उसकी आवाज़ से उसका संगीत समझ में आता, लेकिन हम आज तक उसकी राग, उसका ताल नहीं समझ पाए।
चट्टानों पर चलते-चलते वह सड़क की तरफ़ जा रही है। एक हाथ में पर्स है, दूसरे में लटकती हुई सैंडिलें। अपने पीछे रुदन छोड़ जाती है, जो वहां गूंज रहा है।
वह बिखराव जिंदगी में लौट-लौटकर आता है... समंदर की ढेर सारी यादों, आवाज़ों के साथ नत्थी एक सिसकी... जो पलटकर तकती तक नहीं.
जनाब मज़ा आ गया। मैं रविन्द्रा जी से पूरा-2 सहमत हूं। कोई मूल मंत्र या कोई जादू टोना है तो हमें भी बता दें। हम भी वो कर लें। हा हा हा....
'93 ki achchhi yaad dilayi tumne'. sapno'n ki samuhik hatyao'n ka saal...aankho'n ki kor par thithkaa aansu bhi kisi samandar se kam nahi. bhitar se baahar aata hai...uski gaharayee samandar jitni hi hogi....lekin waha bhi shart hai...bhitar utarna padta hai...bahar to bas ek shor ka naam hai samandar. ek ha-ha-kaar, jo hum jaisi na jaane kitni tooti-footi kashtiyo'n par lagataar thapede' barsata rehta hai...
आभारी हूं आप सबका. इतने प्यार से पढ़ने के लिए. यूनुस भाई, बहुत अच्छा शेर है. हम सब शायद एक ही रूह हैं.
प्रत्यक्षा जी, नंदिनी जी, समीर जी, किशन जी, अरुण जी, विजय जी, अनिल जी, रंजू जी, राजेश जी, आप सभी का धन्यवाद.
रवींद्र, जड़ी के नाम पर अच्छी 'जड़ी' मुझे तुमने.
अनाम जी, 92 का अंत और 93 सचमुच दिल दहला देने वाला था. बहत सारी चीज़ें बदल गईं उस साल से. वे दृश्य अब भी घबरा देते हैं. निजी तौर पर वह दौर बहुत ख़राब था मेरे लिए, उस क़ौमी उन्माद ने मेरे कुछ अपने लोगों को छीन लिया था, उनमें से एक मेरी बड़ी बहन भी थी.
गीत जी, आपके ब्लॉग पर आ कर हमेशा बहुत अच्छा लगता है। बने रहें।
आपका बहुत बहुत आभार दीपा जी. आते रहिए.
आपकी लेखनी से प्रस्फुटित पहली रचना पढी, और आपका कायल हो गया मैं. कह नहीं सकता कि मेरे अन्दर समंदर का शोर उभर आया या खामुशी का रुदन...! शब्दों की पगडंडी पर दर्द के काँटों से होकर गुजरने की अनुभूति... कोई दर्द हरा हो आया सीने में...
बहुत रूमानी!
बहुत अच्छा लगा गीत जी, धन्यवाद.
Nice ...looking forward to hearing more from u...
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