Tuesday, May 13, 2008

लाइब्रेरी में बूढ़ा

अगर आप उस जगह को जानते नहीं हैं, तो आपको वह जगह दिखेगी भी नहीं। सड़क से उसे देख पाना मुश्किल काम था. उसके सामने ईंटों का ढेर होता था. सीमेंट की बोरियां रखी रहती थीं. रेती का बड़ा-सा टीला होता था. लोहे की सरिया और भी बहुत-से अगड़म-बगड़म सामान. पता ही नहीं चलता था कि इसके पीछे कोई इमारत होगी और उसमें किताबें रहती होंगी. किताबें, जिनके लिए दौड़ते-भागते, लगातार हबुआते और हर चीज़ का मोलभाव करते शहर में कोई जगह बची होगी, ऐसा कभी नहीं लगता था. पर वहां एक लाइब्रेरी थी. उस सड़क के सामने से हज़ारों बार गुज़रने के बाद हमें यह बात पता चल पाई थी. हम उसी सड़क से गुज़रकर दस साल तक स्‍कूल जाते रहे. उसी सड़क पर एक अस्‍पताल में बरसों पहले मैं जन्‍मा था. उसी सड़क के आगे पीले रंग की जालियों वाली एक खिड़की में एक लड़की उदास आंखों के साथ खड़ी रहती थी. उसी सड़क के पास एक रात को कुत्‍तों से घिर जाने के कारण एक ख़ब्ती दोस्त ने एक मोटी-सी सम्‍मानित और महत्‍वपूर्ण किताब कुत्तों को दे मारी थी. कुत्ता किंकियाता हुआ निकल गया था, और किताब की जिल्द का भुर्ता बन गया था. तो वहां किताबें थीं और हमें किताबों से प्यार था.

ईंटों, गिट्टियों, रोड़ों को पार कर हम उस इमारत में घुसे। वहां कुछ सूखे और कुछ हरे पेड़ थे. एक नल पता नहीं कितने बरसों से चू रहा था. काई की परतों की मोटाई देखकर अंदाज़ा होता था. लकड़ी का टूटा हुआ दरवाज़ा था, जिसकी खुली हुई कुंडी में एक ताला लटक रहा था. सुनसान मौक़ों पर कोई गौरैया उस पर ठोंगा मारती होगी. भीतर एक कुर्सी पर बैठा हुआ बूढ़ा था. उसके हाथ में सिंधी का एक अख़बार था. टेबल पर भी सिंधी अख़बार बिखरे हुए थे. उस तक गई हुई कोई भी आवाज़ लौटकर नहीं आती थी. ‍कुछ भी पूछो, वह सिर्फ़ किताबों की ओर इशारा कर देता था. वह संभवत: हैरत में था. शायद उसने कई सदियों के बाद उस फ़र्श पर अपने अलावा किसी और की पदचाप सुनी थी. एक नज़र खड़े होकर पूरे हॉल को देखो, तो लगे, जब वह बूढ़ा बाहर से ताला बंद कर चला जाता होगा, तो रात यहां किताबों का नाच होता होगा. वे अपनी दराज़ों, आलमारियों और लिहाफ़ों से बाहर निकलती होंगी, अपने बदन से धूल और दीमकों को झटक कर नाचती होंगी, शोक की किसी थाप पर, उपेक्षा और अपमान की मिलीजुली ताल पर. वैसे ही, जैसे एक ग्रीक मिथ में दुखी देवदूत रात-भर किसी मैदान में नाचते हैं, वे किसी से बदला लेना चाहते हैं, लेकिन फ़रिश्ता होने की मजबूरी इस ख़याल को उनसे दूर कर देती है.

आलमारियों की तादाद देखकर लगता था कि यहां कभी ख़ूब किताबें रही होंगी। इतनी कि शहर डूब जाए. अब ख़ाली आलमारियां ज़्यादा थीं. उन पर धूल थी. कुछ काग़ज़. लकड़ी और झाड़ू का एकाध टुकड़ा. स्टीफ़न किंग के रहस्यवादी उपन्यासों में एक जगह ऐसी आती है, जहां सब कुछ रुका हुआ है. हज़ारों साल के लिए पृथ्‍वी चलना रोक देती है, और एक दिन अंतरिक्ष में अपनी जगह से ग़ायब हो जाती है. उसके ग़ायब होने के बाद भी ख़ाली बची उसकी जगह उसका आभास कराती रहती है. किताबों के न होने से बनी उनकी ख़ाली जगह वैसी ही लगती थी. जो कुछ बची थीं, उनमें हिंदी का पुराना साहित्य था. भुवनेश्वर की भेडि़ए थी, जो किसी और दुकान में नहीं मिली थी. तौलिए नाटक था. प्रेमचंद, प्रसाद के साथ गुरुदत्त भी थे. सिंधी का साहित्य देवनागरी लिपि में था. वहीं हमने पहली बार सस्सी और पुन्नू की प्रेमकथा पढ़ी थी. शाह अब्दुल लतीफ़, सचल सरमस्त, रूमी और फि़रदौसी भी. लड़काना, शिकारपुर और सख्खर का छोटा-मोटा इतिहास. वहीं एक किताब थी, जिसमें लिखा हुआ था कि शिकारपुरी सिंधी आपकी विदावेला तक आपसे पानी नहीं पूछते. और जो लड़काना में रहते थे, वे सबसे पहले ईरान से आए थे. लड़काना सिंध का एक क़स्बा है. उसके साथ बचपन का जुड़ाव है. वहां की गलियों की कहानियां अब भी याद हैं. मेरी दादी वहीं पैदा हुई थी, वहीं पली-बढ़ी थी. देश बंटा, तो लाखों लोगों के क़ाफि़ले में भटक कर करनाल पहुंची थी. वहां रिफ्यूजी कैंप में साल रहने के बाद इस शहर में, जिसे बसाया ही सिंधियों के लिए गया था.

इतनी बड़ी लाइब्रेरी हमने कभी देखी नहीं थी। आज भी लाइब्रेरी शब्द सुनते ही सबसे पहले वही याद आती है. हमारे लिए लाइब्रेरियां ठेलों पर लगती थीं और वहां वेदप्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक के नॉवेल, चंदामामा, चाचा चौधरी की कॉमिक्‍स रुपए-दो रुपए में एक दिन के लिए मिला करती थीं. पांच रुपए देने और आंख मारते हुए हंसने पर ठेलेवाले पोर्न पेपर्स देते थे. तब सीडियों का ज़माना नहीं था. हमने बूढ़े वाली उस लाइब्रेरी में बची हुई कई किताबें पढ़ीं. कई किताबें चुराईं. बूढ़ा जानता था कि हमारी शर्ट के नीचे एक किताब छुपी पड़ी है. पर वह कभी कुछ नहीं बोला. पहले हमें लगा कि हम दबंग है, इसलिए उसकी हिम्मत नहीं. बाद में उसने बताया कि वह सब जानता है. चलो, कोई पढ़ेगा तो सही. वह शिकारपुरी था. अपनी फि़तरत के खि़लाफ़ किताबें बेचा करता था. हिंदुस्तान आकर उसके बाप ने यह लाइब्रेरी खोली. बहुत लोग आते थे वहां. लोग अपने बच्चों को लेकर आते थे कि उन्हें किताबें पढ़ने का शउर मिले. वे पूरी क़ौम के लिए संघर्ष के दिन थे. पाकिस्तान से आए ज़्यादातर लोगों ने पढ़ाई-लिखाई से तौबा कर काम शुरू कर लिया. पापड़ बेच-बेचकर पैसे जुटाए और बिजनेस किया. आज वह क़ौम बहुत समृद्ध है. उस शहर में जालंधर से ज़्यादा पैसा टर्न होता है. पर अब वहां कोई लाइब्रेरी नहीं है. न इमारतों में, न ठेलों पर.

खुले हुए दिनों में बूढ़े ने बताया था कि विधायक लाइब्रेरी की इस ज़मीन को हड़पना चाहता है। उसी ने यहां ईंट-मिट्टी का ढेर लगा रखा है. उसे मेरे मरने का इंतज़ार है. मेरे मरते ही वह यहां एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाएगा. मैं उससे बारहा कहता हूं कि मुझे मार डालो, क्योंकि जीते-जी मैं तुम्हें अपनी ज़मीन नहीं दूंगा. यह कहते हुए उसके होंठ कांपते थे. उसके चश्मे के पीछे की आंखों में कोई छिपा हुआ शौर्य तड़पकर सिर उठाता था. जब वह दोहराता, मैं अपनी लाइब्रेरी नहीं दूंगा, तो उस हॉल के सूनेपन, निर्जनता और बेनूर वीरानी में उसकी आवाज़ ऐसे लौटती थी, जैसे मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.

एक दिन हमारी आंखों के सामने लाइब्रेरी को जेसीबी मशीन के ज़रिए ढहा दिया गया। मिट्टी का तेल छिड़क कर किताबों को आग लगा दी गई. लोहे की आलमारियों को तोड़ कर, तौल-तौलकर भंगार वालों को दे दिया गया. उस समय वह बूढ़ा वहां नहीं था. कहां था, किसी को नहीं पता. आज तक कोई पता नहीं कर पाया कि वह बूढ़ा कहां गया. बहुत दिनों तक हम सुनते रहे कि विधायक ने उसे ज़मीन के नीचे जिंदा गाड़ दिया है.

अब वहां एक बहुत बड़ी इमारत है। बड़ा शॉपिंग कॉम्प्‍लेक्स, जिसकी पहली मंजि़ल पर पार्किंग की सुविधा है. वहां के गार्ड्स को रात में किसी के कराहने की मद्धिम आवाज़ आती है. बदले में गार्ड्स अपनी सीटियों से कान फाड़ देने वाली किर्रर्रर्र की आवाज़ सड़क पर ढोल देते हैं.

11 comments:

SHESH said...

विधायक ने नहीं, ऐसे बूढ़ों को किताबों से दूर हो रहे हम सब लोगों ने मिलकर जमीन के नीचे गाड दिया है ।
झकझोर देने वाली पोस्‍ट है ये । हस्‍पतालों लाइब्रेरी‍यों पार्कों की ऐसी असंख्‍य जगहों को हडप लिया गया है । यही हमारे समय का सच है दोस्‍त ।

Arun Aditya said...

पढने वालों की बेरुखी से कितनी ही लाइब्रेरियाँ किताबों की कब्रगाह बन गयी हैं।जिनके पास पैसा और पावर है, बे इन कब्रगाहों पर लोभ-लाभ का महल खड़ा करना चाहते हैं। किताबों के चाहनेवाले इतने कम(जोर) हैं कि हड़पने वालों को लगभग वाक-ओवर मिल रहा है। अंधेरे समय का शोकगीत है यह पोस्ट।

सुभाष नीरव said...

बहुत खूब। हमारे समय के सच को बखूबी रेखांकित किया है आपने भाई गीत जी।

Deep Jagdeep said...

ऐसी ही एक लाइब्रेरी लुधियाना में है जिसे एक बुर्जग ने बसाया है। मैंने एक बार लिखा था कि इस लाइब्रेरी की उम्र उतनी लम्बी है, जितनी की उस बुजुर्ग की| जल्द ही अपने ब्लाग के जरिए उस बुजुर्ग से आप सब को रूबरू करवाउंगा।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

कमाल की भाषा! वह बूढ़ा अब मेरे सपनों में आयेगा.

नीरज गोस्वामी said...

बहुत साफ सीधे शब्दों में तल्ख़ बयानी...वाह. काश ये प्रगति के नाम पर हो रहा विध्वंश अब यहीं रुक जाए तो ना जाने कितने बूढों की रूहों को सुकून मिल जाए....
नीरज

Pratyaksha said...

किताबों का शोकगीत ?

दिनेशराय द्विवेदी said...

रचना सुंदर है, लेकिन शिल्प पुराने जमाने का, जैसे कोई एक सदी पहले का सिद्ध लेखक लिख रहा हो।
फिर भी बधाई।

चंद्रभूषण said...

क्या बात है गीत बाबू! कलेजा निकालकर रख दिए। यह पीस पढ़कर तो आज मेरा दिन बन गया।

Dr. Mahesh Parimal said...

गीत जी
आश्चर्य है आप ब्लाग में लिखने के लिए समय निकाल लेते हैं। अच्छा लगा आपके ब्लाग पर आना। मुझे निशिकांत ठकार जी का पता चाहिए मिल पाएगा। यदि संभव हॊ तॊ मेरी मदद करेंगे। विश्वास है अन्यथा नहीं लेंगे।
डा महेश परिमल

Anonymous said...

गीत जी
आश्चर्य है आप ब्लाग में लिखने के लिए समय निकाल लेते हैं। अच्छा लगा आपके ब्लाग पर आना। मुझे निशिकांत ठकार जी का पता चाहिए मिल पाएगा। यदि संभव हॊ तॊ मेरी मदद करेंगे। विश्वास है अन्यथा नहीं लेंगे।
डा महेश परिमल
maheshparimal@yahoo.co.in