बरसों पहले, शायद काशीनाथ सिंह के किसी संस्मरण में पहली बार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह नज़्म पढ़ी थी, इसकी शुरुआती दो पंक्तियां. उस संस्मरण में धूमिल ये पंक्तियां किसी को सुना रहे थे. फ़ैज़, जिनका हर शब्द उम्मीद की लौ को आंजुर से ढंकता है, यहां शाम को इस क़दर फ्रीज कर देते हैं कि लगे, ये रात न कभी बुझेगी, न सुबह कभी होगी. घर पर एक पुरानी हार्ड डिस्क को खंगालने में फ़ैज़ की आवाज़ में कुछ नज़्में मिली हैं, और भी कई कवियों की आवाज़ों में शायरी. फ़ैज़ की इस शाम को ख़ुद पर उतरने दीजिए, जहां आसमां कोई पुरोहित है, जिस्म पर राख और माथे पर सिंदूर मले. उर्दू में पाठ की भव्य परंपरा है, लेकिन कहते हैं, फ़ैज़ बहुत अच्छा कविता पाठ नहीं करते थे. ख़ैर, यहां उनकी आवाज़ है, जो अपनी ख़राश में शायरी का बुलंद दरवाज़ा लगती है.
शाम
इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर इक दर का दमे-आखि़र है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पर सेंदूर मले
सरनिगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से
इस तरह है कि पसे-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूं सहर का दाम
दामने-वक़्त से पैवस्त है यूं दामने शाम
अब कभी शाम ढलेगी न अंधेरा होगा
अब कभी रात बुझेगी न सवेरा होगा
आसमां आस लिये है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले .
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पुनश्च :
पहले लाइफ लॉगर पर था ऑडियो. अब वह बंद हो गया. सो दुबारा अपलोड किया है. लगे हाथ फ़ैज़ की ही आवाज़ में कुछ और नज़्में.
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख कि आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे कफ़्लों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्मो ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच जि़ंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
पास रहो
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी कर सियह रात चले
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबते हुये दिल
आस्तीनोंमें निहाँ हाथों की रह तकने निकले
आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासुदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
फिर कोई आया
फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरव होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़
सो गई रास्ता तक तक के हर एक रहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बेख्वाब किवाडों को मुकफ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा
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अगली नज़्म है 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवाय', वह एक अलग पोस्ट के रूप में यहां पढ़ी जा सकती है, फ़ैज़ साहब की ही आवाज़ है.
16 comments:
गीत भाई
फ़ैज़ का किसी भी रूप में ज़िन्दगी में दस्तेयाब होना एक करिश्मा है. ज़माना ख़ूब तरक़्की कर रहा है लेकिन फ़ैज़,फ़िराक़,फ़राज़,
कैफ़ी,साहिर,मीर,ग़ालिब वहीं के वहीं रहेंगे.इन्हें आपकी -हमारी आपाधापी से क्या.क़ायनात रहे न रहे...ये सब रहेंगे अपने क़लाम और शब्द से हम सबको मालामाल करते,हमें बताते कि ये सब किस मिट्टी के बने थे. दुनिया में तमाम ख़राबियों के बावजूद इंसान ज़िन्दा रह रहा है तो इसमें ऑक्सीजन से ज़्यादा बड़ा करिश्मा इन महान क़लमकारों का है...फ़ैज़ आए हमारे दर पे...नवाज़िश आपकी
कोई उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढता है जो ख़राबी के बहाने कब से
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पर सेंदूर मले
आसमां आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक्त का दाम छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पाल बोले
कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले
वाह! भाजी तुहाडे ते इश्क़ आ गया। आख़िर की चार लाइनों ने हिला दिया।
आपने दिन बना दिया साहब......शुक्रिया....
गीत भाई, फैज साहब की आवाज सुनवाने ले लिये बहुत बहुत शुक्रिया.
फैज़ पर इतनी दुर्लभ सामग्री पेश की शुक्रिया...कम लोग जानते है इस नज्म के बारे में...शिव बटालवी वाला काम भी बढ़िया था आपका. मैंने तो खैर देर से आना शुरू किया आपके यहाँ....कमबख्त इतनी पुरपेंच गलियां जो थी...अब आता रहूँगा...ऐसे जतन जारी रखिएगा...आपको बधाई कहना चाहिए...पर कहूँगा....शुक्रिया...
फैज़ जैसे शायर को उनहीँका लिखा , पढ्ते सुनना... ये भूलेँगेँ नहीँ..
शुक्रिया गीत भाई ..
- लावण्या
कोई भी तारीफ़ कम पड़ जायेगी! फिर मैं कोशिश ही क्यों करूं? सरनिगूं बैठा हूँ, सुन रहा हूँ और खामोश हूँ.
फैज साहब की आवाज सुनवा कर बहुत उमदा कार्य किया. आभार.
बहुत सुंदर पेशकश..आभार आपका इसे सुनवाने के लिए..
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
वाह ! क्या खूब !! पढ़ तो गया , मगर बाकी लोग सुनवाने का आभार भी मान रहे थे । मैं सब देख आया , कहीं भी प्लेयर नज़र नहीं आया। ये क्या तिलिस्म है गीत भाई ?
खैर,मैं हूं ही मूरख । बकौल प्रमोदसिंह, अभी बहुत कुछ सीखना है । सच है, ढूंढता हूं प्लेयर।
अदभुत काम किया ज़नाब । क्या बात है हमने कभी सोचा भी नहीं था कि फैज को सुनने मिलेगा । बहुत धन्यवाद भाईसाहब ।
फैज की आवाज सुनकर मजा आ गया.... दोनों नज्में पढी सुनी.... कमाल है जी... ऐसी चीजें देते रहिए...
raat ki kabra par bhatak-ti
ek rooh hai shaam...
kahi'n din doob-ne ka maatam
to kahi'n raat ke jhil-mil
jism se lip-ta resham...
din hardam apne me masroof
raat har lamha khud me gaafil...
andhere me guumm apne
maay-ne talaash-ti hai shaam
use'y din ke uja-le se
koyee ummeed nahi....
shaam har roz
mere bheetar utar-ti hai...
us-ki har shaam
wahi'n par gujar-ti hai....
lag-ta hai aapke saath rehkar hum bhi shayar bann jayenge...
geetbhai,
faiz ki is nazm ko sunne ke liye kya karna hoga? mai aapka purana pathak raha hoon. kahaniyon ka bhi blog ka bhi.
prabhatranjan
प्रभात जी,
टेक्स्ट के नीचे प्लेयर है, जिस पर क्लिक करने पर आवाज़ सुनाई देगी.
न सुनाई पड़े, तो एक बार मशीन की सेटिंग चेक कर लें
या बताएं मुझे, इसकी ओरिजिनल फाइल आपको मेल कर दूंगा मैं.
बाक़ी सभी साथियों का आभार, इसे सुनने के लिए. फ़ैज़ तो फ़ैज़ थे. संजय जी, अपने राम भी बड़े जज़्बाती हैं उन्हें लेकर.
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