ये कविताएं उस कवयित्री ने लिखी हैं, जो बहुत हड़बड़ी में थी और जिसने कल ही अपना देश खोया है. ये कविता उन लोगों को संबोधित है, जो आने वाले दिनों में अपना देश खो बैठेंगे, क्योंकि वे सब भी बहुत हड़बड़ी में हैं. हम ऐसे समय में हैं, जहां हर सुबह संज्ञाएं बदल जाती हैं. सर्वनाम वही रहते हैं, पर क्रियाएं बदल जाती हैं. जो चीज़ें नहीं बदलतीं, वे अपनी बेबसी में शर्मिंदा हैं. न वे ख़ुद बदल पाती हैं, न दूसरी चीज़ों को बदलने से रोक पाती हैं.
उस कवयित्री का नाम है दुन्या मिख़ाइल. अरबी में लिखने वाली दुन्या बदले हुए वादों की कवि हैं. 1965 की पैदाइश है. चार संग्रह आ चुके हैं. दो अंग्रेज़ी में अनूदित हैं. 2001 में दुन्या को संयुक्त राष्ट्र का 'फ्रीडम ऑफ राइटिंग' अवार्ड मिला. उससे पहले इराक़ में उसे धमकियां मिलीं. जान बचाने की फि़क्र मिली. बग़दाद की गलियों से लाशें मिलीं. चीत्कार और आंसू मिले. सड़कों पर धुएं के बीच कुछ दोस्त मिले, जिन्होंने सरकारी धमकियों से बचाते हुए उसे देश से बाहर निकाला. 96 में वह इराक़ छोड़कर मिशिगन जा बसी. समकालीन अरबी कविता में वह एक ज़रूरी नाम है.
पहल 83 के लिए उसकी कुछ कविताओं का अनुवाद और ईमेल पर उससे एक छोटा-सा इंटरव्यू किया था. यहां प्रस्तुत कविता उन्हीं में से है. कविता में साहस पर पहले नज़र जाती है, कविता की सुंदरता पर बाद में.
मैं हड़बड़ी में थी
कल मैंने एक देश खो दिया
मैं बहुत हड़बड़ी में थी
मुझे पता ही नहीं चला
कब मेरी बांहों से फिसलकर गिर गया वह
जैसे किसी भुलक्कड़ पेड़ से गिर जाती है
कोई टूटी हुई शाख
कोई उसके पास से गुज़रे
और वह उसकी टांगों से टकरा जाए
शायद आसमान की ओर खुले पड़े किसी सूटकेस में
या किसी चट्टान पर उकेरा हुआ
मुंह खोल चुके किसी घाव की तरह
या निर्वासित लोगों के कंबलों में लिपटा
या किसी हारे हुए लॉटरी टिकट की तरह ख़ारिज
या किसी नरक में पड़ा असहाय, विस्मृत
या बिना किसी मंजि़ल के लगातार दौड़ता
बच्चों के सवालों की तरह
या युद्ध के धुएं के साथ उठता
या रेत पर किसी झोपड़ी में लुढ़कता
या अलीबाबा के मर्तबान में लुकाया हुआ
या भेस बदलकर पुलिसवाले की पोशाक में खड़ा
जिसने अव्यवस्था फैला दी हो क़ैदियों के बीच
और ख़ुद भाग खड़ा हुआ हो
या हंसने की कोशिश करती
किसी औरत के दिमाग़ में
उकड़ूं बैठा हुआ
या अमेरिका में नए आए लोगों के
सपनों की तरह बिखरा हुआ
किसी भी रूप में टकराए वह किसी से
तो कृपया उसे मुझे लौटा दीजिए
मुझे लौटा दीजिए, श्रीमान
मेम साब, मुझे लौटा दीजिए
वह मेरा देश है
कल जब मैंने उसे खोया
मैं बहुत हड़बड़ी में थी.
12 comments:
देश को खोने का ग़म और उसमें पोशीदा वे सारे जज़बात जिससे बाबस्ता होती है पूरी की पूरी ज़िन्दगी.
आपकी पठन - पाठन सक्रियता हम सब के लिये घर बैठे गंगा ले आती है.
साधुवाद गीत भाई...रविवारीय सुबह को भावपूर्ण बनाने के लिये.
अद्वितीय कविता।
मैंने इन अनुवादों पर अपनी खुशी ज्ञान जी को पत्र लिखकर जाहिर की थी गीत! अब तुम्हारे आगे भी जाहिर कर रहा हूं। तुम्हारा ब्लाग बहुत जोरदार है !
संजय जी, दिनेश जी का आभार. शिरीष भाई, धन्यवाद. ख़ुशी हुई जानकर कि आपने पढ़ रखा था ये.
acha kiya ki is kavita ko yahan le aaye...main pahal dekh nahin paya tha...anuwaad men aapke daksh haath yahan bhi dikhte hain...dunya ne idhar ki duniya aur usmen pidit-wisthapit manushya chetna ka marmik utkhnan kiya hai...aisi chejen aur laiye bhai...us interview ke chand tukde bhi de dena sarthak hi hota jo aapne kiya hai...bhrhaal jo nahin hai uske liye zor kya...jo hai...bahut acha bn pada hai...
अद््भुत है...दिव््य है..
या अमेरिका में नए आए लोगों के
सपनों की तरह बिखरा हुआ
How true !!
Thanx 4 this post Geet ji
बदलती हुई संज्ञाओं और क्रियाओं की
कारगुज़ारियों को बेपर्दा करती,
न बदल रही चीज़ों की बेबसी के बीच भी
विस्थापित इत्मीमान के लौटने का यकीन
दिलाती यह कविता...दर्द भी है और दवा भी.
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डा.चंद्रकुमार जैन
जब पहल में यह कविता आई थी तब भी अच्छी लगी थी. दुबारा इस की याद दिलाने का शुक्रिया.
गीत भाई,
हममें से कई बहुत हड़बड़ी में हैं और धीरे धीरे अपना देश खो रहे हैं। मैं भी उन लोगों में शामिल हूं।
धन्यवाद, दुन्या की इस कविता के बहाने कुछ सोचने पर मजबूर करने के लिए।
समरेंद्र
देश, समाज या घर से बेदखल होने के बाद आदमी भीतर से कितना भर जाता है, इसे इस कविता से बखूबी समझा जा सकता है। इसी सन्दर्भ में निराला की एक कविता की याद आ रही है जिसका भाव था कि बाहर मैं कर दिया गया हूँ, भीतर से भर दिया गया हूँ।
और हाँ, अनुवाद में लुकाया शब्द देख कर अच्छा लगा। दरअसल देश के साथ ही कुछ शब्द भी हम खोते जा रहे हैं। आम चलन से बाहर होते किसी शब्द को जिंदा रखने की कोशिश सराहनीय है। बहुत-बहुत बधाई।
I loveed this poem..
and the writing style is soo much like me :)
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