यह फ़ैज़ की बहुत मशहूर नज़्म है. कई बार सुनी-पढ़ी होगी आपने. 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'. नूरजहां ने यादगार तरीक़े से गाया भी था इसे. दरअसल, पिछली पोस्ट में 'शाम' से पहले इस नज़्म को सुनाना चाहता था, पर अपलोड ही नहीं हो रही थी.
सुनिए, ख़ुमारी में डूबी लटपटाती हुई-सी फ़ैज़ की आवाज़ ( वह ऐसे ही पढ़ते थे हर नज़्म, और कभी गुनगुनाते थे, तो भी कमोबेश ऐसे ही; ऐसा पढ़ा है कहीं. फ़ैज़ से अपना मिलना तो कभी हुआ नहीं था) में यह नज़्म.
फ़ैज़ पर ये दोनों पोस्ट कबाड़ख़ाना वाले अशोक पांडे जी को समर्पित हैं, जो लंबे समय से प्यारी, नायाब और दुर्लभ चीज़ों को हमसे साझा कर रहे हैं. उनके इस अथक परिश्रम को सलाम.
और भी ग़म हैं ज़माने में...
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
कुछ मायने : दरख़्शां- रोशन, ग़म-ए-दहर- दुनिया के तमाम ग़म, सबात- स्थिरता,
निगूं- झुकना, वस्ल- मुलाक़ात तारीक- अंधेरा, बहीमाना- भयानक, अतलस- सैटिन जैसा कोई कपड़ा, कमख़्वाब- ज़रीकाम किया हुआ वस्त्र, जा-ब-जा- जगह-जगह, अमराज़- घाव, तन्नूर- भट्ठी
12 comments:
वाह!! बहुत आनन्द आ गया. जारी रहिये.
bahut hi sundar nazm hai--dhnywaad
Waah ! Ghazab !! Kamaal kar rahe hain aap ...... Jaarii rahe
यह तो हीरा थमा दिया आपने - और हमने अपना लैपटाप का माइक्रोफोन सामने लगा कर तुरन्त रिकार्ड कर लिया। धन्यवाद!
दूरदर्शन और पी.टी.वी. पर कभी देखा था फ़ैज़ साहब को पढ़ते हुए..लगा था क़ायनात की सारी रोशनी उनके नज़्म-पाठ से झर रही है.इसी नज़्म एक पंक्ति ’तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रखा क्या है ’ पर मजरूह साहब ने एक चित्रपट गीत लिखने की इजाज़त चाही थी.फ़ैज़ साहब ने दी और कहा शर्त ये है कि मजरूह तुम अपने गीत की इसलाह मुझसे करवाना..चिट्ठी चली मुंबई से लाहौर और फ़ैज़ साहब का जवाब आया...’मजरूह तुम्हारा नग़्मा मेरी नज़्म से भी ज़्यादा खूबसूरत है’
ईमानदार लोगों का दौर था गीत भाई;आज जैसे चौट्टाई का नहीं थी कि किसी और का गीत उठा कर पिक्चर में पेल दिया अपने नाम से.चोखे लोगों का ज़माना था और यह फ़ैज़ का फ़ैज़ ही है जिसके चलते दिलो-दिमाग़ में हर लम्हा तारी रहता उनका लिखा.दो सुरीली पोस्ट्स के लिये शुक्राने ढ़ेर सारे...
पढ़ लिया फिर फिर से .. सुनेंगे फिर आफियत से ..
इसे कई बार पढ़ा था लेकिन फैज ने डूबकर पढा है । ये भी सुना हमने । ऐसे ही फैजियाये रहिये ।
संजय पटेल जी ने जानकारी भी बढा दी लगे हाथ हमारी । वाह जी वाह । बधाई आभार ।।
बहुत बढ़िया.
कई सालों से मेरी डायरी में हर साल अंकित होती रही है फ़ैज़ साहब की ये नज़्म. जितनी दफ़ा पढ़ो, उतना और और पढ़ने का मन करता है. कमाल का काम किया आपने.
और मुझ कबाड़ी को इतनी इज़्ज़त नवाज़ने का शुक्रिया गीत भाई!
यूँ न था मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा........
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा..............
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बेमिसाल ..
शुक्रिया इसे सुन्वाने का ..
अब कुछ गुस्ताखी हो जाये ..:)
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बैरागी की दिल कशिश
लफ्ज़ोँ मेँ बयाँ कर चले,
समँदर के पानी को,
नज़रोँ मेँ छिपाये रहे
बात कितनी है,
नहीँ कुछ भी नहीँ-
कोयी समझे नहीँ
तो क्या कीजे ?
- लावण्या
मज़ा आ गया गीत भाई! Keep the great work going!
आप सभी का बहुत बहुत आभार. फ़ैज़ साब की कई नज़्में उनकी आवाज़ में हैं. आगे कभी उन्हें भी सुनेंगे.
गीत चतुर्वेदी जी
फैज़ साहेब की आवाज़ में उन्हीं के स्वर में
सुनाकर आपने अभिभूत हूँ
सादर
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