गले में ख़राश हूं
गठिया की पीड़ हूं नियंत्रित भीड़ हूं
चर्चा में जम्हाई हूं विमर्श में उबासीशोक में ठहाका हूं सन्नाटे में पटाख़ा हूं
गोलगप्पे-सा हल्का गर्म-गर्म फुल्का
चेहरे में पिचकन कितौ शरीर में तोंद हूं
अचार में पचरंगा विचार में लाइट हूं
शेर हूं शोर हूं उम्मीद में किशोर हूं
काग़ज़ में हलफ़नामा
प्लास्टिक में पैसा कितौ रबर में कंडोम हूं
कपड़ों में ब्रा हूं रेशम की पैंटी हूं
क़र्जे़ के खेत में साइबर हूं आईटी हूं
सड़कों में गड्ढा हूं लाफ्टर का अड्डा हूं
ट्रेन में वेटिंग हूं प्लेन में स्टैंडिंग हूं
बंटाई में प्रदेश कितौ भाषा में विदेश
ग़ौर से देखो मुझे मैं एक देश हूं
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(पेंटिंग मोईन फ़ारूक़ी की है. आभार सहित)
9 comments:
jo bhi hai shaandaar hai !
Sahi hai .. bane rahen.
bariya hai saab
बहुत उम्दा.
बिल्कुल धूमिल टाईप है… ज़बर्दस्त भी।
शुभम।
बहुत ही जोरदार
बैठे ठाले ये गीत क्या कविता लिख गये भई, बहुत शानदार, दमदार।
वाह वाह
जून की उमस मे ये बसंत की बहार
लगा जैसे भिगो गई बारिश की फ़ुहार :)
बहुत हलकी सी दिखने वाली यह कविता आज के समय पर जबर्दस्त व्यंग्य है. जिसमें बाज़ार से लेकर यौन विकृति तक,जो इस देश की बड़ी बीमारी है,सब कुछ है. सबसे प्रभावशाली अंतिम पंक्तियाँ हैं जो दर्शाती हैं कि यह अलग थलग पड़ने वाले संवेदनशील व्यक्ति की ही नहीं,बल्कि पूरे देश की व्यथा है.भीड़ से अलग कुछ कहने और करने वाले व्यक्ति को मजाक बना दिया जाता है मगर बाज़ार में हतप्रभ खड़ा वह मुन्ना ही कबीर की तरह उलटबासी करके कुछ सार्थक कहने का साहस रखता है.
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