दिल्ली एक बहुत बड़ी चादर लग रही थी, जिसमें से अनगिन पैर बाहर निकले हुए थे. चादर में न अंट पाने का दोष पैरों को देना ग़लत है. नींद में ग़ाफि़ल उन लोगों को खोजना चाहिए, जिन्होंने चादर का ऊपरी सिरा कहीं दांतों में खोंच रखा है. मैं पैदल चलता था और दिल्ली नाम की चादर से बाहर निकले, बिना नाम वाले पैरों से टकराकर लटपटा जाता.
कुछ ख़ाली घंटे नेमत की तरह आते हैं, और उनमें किसी नामधारी से मिलना नेमत को शर्मिंदा करने जैसा होता है, कुछ ऐसा ही सोचकर मैं सड़क के एक किनारे खड़ा था. पचास किताबों का बोझ मामूली नहीं होता. कंधे पर टांगकर चलना ख़ुद से कोई बदला चुकाने जैसा होता. और ख़ाली घंटे नेमत होते हैं, और ये नेमत आपको ईश्वर भेजता है, और ईश्वर नेमतें भेजने के मामले में बहुत कंजूस होता है, फ़रिश्तेपन की प्रतीक्षासूची में खड़ी आत्माएं ऐसा बताकर गई थीं.
और वह जो ऑटो रिक्शा वाला था, वैसी ही किसी सूची में खड़ा दिखता था. स्वभाव के विपरीत मेरे मुंह से शब्द झरने लगे. वह भी बोल रहा था. मेरी भाषा उसके सामने, भाषा सीखने के क्रम में किसी बच्चे की त-त, प-प से ज़्यादा नहीं लग रही थी. वह मोलभाव कर रहा था और मैं उसे आशंकित कर रहा था कि मैं बिना किराया दिए भाग भी सकता हूं. मयूर विहार, नहीं, पश्चिम विहार, अरे, द्वारका चलो यार, छोड़ो, आईटीओ तक ही. एक काम करो, मंडी हाउस छोड़ देना. श्रीराम बुक सेंटर.
वह सलाह दे रहा था कि पहले सोच लो. और मैं सोच रहा था कि कुछ घंटे अचानक ख़ाली मिल जाएं, तो वाणी कैसी तो खड़बड़ा जाती है, खोपड़ी वैताग जाती है. करें क्या, दिमाग़ बोंब मारता है. मैं उसके रिक्शे में जमा हुआ था और बाहर खड़ा वह अभी भी नक्की कर लेना चाहता था कि कहां और कितने में उतारेगा मुझे.
हो सकता है, दो मिनट बाद ही उतर जाऊं मैं.
मेरी बात सुनकर वह बमकने-सी अवस्था में आने लगा- आप तो अभी उतर जाओ. गड़बड़ आदमी लगते हो.
तो ये भी मेरी गड़बड़ी ताड़ गया. इस गड़बड़ी का क्या किया जाए, जो छिपाए नहीं छिपती. जिसे मैं अपने सीधेपन का छत्रगौरव मानता हूं, वह सामने वाले को गड़बड़ कि़स्म की धूर्तता क्यों लगती है?
सारी धूर्तता को रिवील करते हुए मैंने उसे यूं ही दिल्ली घुमाने के लिए कह दिया. और वह घुमाता भी रहा. इंडिया गेट के सामने ले जाकर बोले कि ये इंडिया गेट है, तो 'तिच्या आईला, देऊ का कानाखाली' जैसा कोई रापचिक बोलवचन मुंह से फूटने-फूटने को होता, पर वासुदेव कृष्ण टाइप का मुस्कानिज़्म रोक-रोक लेता. आंख निकलकर नाक तक आती और स्वांग में रोम-रोम का साझा होता.
एक जगह थककर सड़क किनारे पेड़ तले लेट जाने का मन हुआ. इस तरह खुले में पता नहीं कब लेटा था. आंख खुले, तो नींद आती है और आंख बंद हो, तो अनिद्रा. मारकेस के नॉवेल की वह लड़की, जो मिट्टी खाती है और पूरे गांव की नींद भी. पर छांव भली लगती है. घास पर और भी लोग लेटे हैं. उन सबके पांव चादर से बाहर हैं.
पास बैठकर बीड़ी फूंकता ऑटोवाला अपने घर की कहानी सुना रहा है. दिल्ली की बेदिली के कि़स्से. मैंने एक घर ख़रीदा. पटपड़गंज में. एक जाट ने उस पर क़ब्ज़ा कर लिया. मुझे सामान सहित घर से निकाल दिया. कुछ दिन मेरे पूरे परिवार ने ऐसे ही सड़क के किनारे जीवन जिया.
सामने एक दूसरा ऑटोवाला सवारी से भाड़े की किचकिच कर रहा है. ये वाला कहता है कि सब एक जैसे हैं.
उससे एक बीड़ी लेकर किनारे का जीवन जीता हूं. उससे कहता हूं, पैर दिखा.
अचकचा जाता है.
अबे, पैर दिखा.
अपना और उसका पैर एक साथ रखता हूं और कहता हूं, देख, दोनों एक-से हैं. दोनों पर चादर से बाहर रहने के निशान हैं, सूखी हुई चमड़ी पर बाहर रहने की सफ़ेद धारीदार आदत है.
आंख फिर नाक तक आती है और उलटकर लौटकर जाती है. स्साला. गड़बड़ आदमी है. कुछ ऐसा ही सोचा उसने और पैर पीछे खींच लिया. फिर सकुचाकर पूछा- कहां रहते हो?
बग़ल में लेटी अरस्तू की आत्मा को उसका सवाल दिलचस्प लगता है. वह मेरी देह में आ जाता है और कहता है-
मैं अपने शब्दों में रहता हूं. मेरे शब्दों की छत इन दिनों टपकती है. तुम ही बताओ, कोई टपकती छत के नीचे कितने दिनों तक रह सकता है?
हम तो खुले आसमान के नीचे रह लेते हैं. टपकती छत से क्या गुरेज़!
अरस्तू की आत्मा ओझा को चंवर डुलाती है. उचक कर पेड़ पर टंग जाती है. ये सारे दार्शनिक दिल्ली के ऑटोवालों से क्यों नहीं मिल लिए आकर?
उबासी की पत्ती उड़ते हुए आती है. पिछली कई रातों से थकान के बाद भी बिस्तर पर जागी हुई सिलवटें हैं बस. मिट्टी खाने वाली बच्ची नींद भी खा जाती है.
एक राउंड और. एक्सीलरेटर और ब्रेक का संतुलन बनाते वह फिर अपने मकान से बेदख़ली का कि़स्सा सुनाने लगता है.
मैं उसके और अपने पैर देखता हूं. दोनों एक जैसे ही तो हैं. पर वह नहीं मानता.
ख़ाली घंटे ईश्वर नेमत से देता है. और मैं ऐसे ही बचे किसी घंटे में फिर दिल्ली नाम की चादर से बाहर निकले, बिना नाम वाले पैरों से टकराता लड़खड़ाता भटकता हूं. उम्मीद से कि इस चादर के नीचे कहीं कोई जगह मुझे भी मिल जाए.
मकान से बेदख़ली का कि़स्सा जारी रहता है. किसी ऐसी लिपि में, जिसे पढ़े जाने की उम्मीद भी बाक़ी नहीं. किसी ऐसी आवाज़ में, जो डकार और ठहाकों के समय में गूंगी-बहरी हो चुकी.
8 comments:
मैं भी इन दिनों इसी समस्या से ग्रस्त हूँ-
इस गड़बड़ी का क्या किया जाए, जो छिपाए नहीं छिपती. जिसे मैं अपने सीधेपन का छत्रगौरव मानता हूं, वह सामने वाले को गड़बड़ कि़स्म की धूर्तता क्यों लगती है?
बहुत बढ़िया लगा पढ़कर। बेहतरीन लिखा है आपने। सोचने पर मजबूर कर दिया कि इस चादर में मेरे पॉंव कहा तक निकले हैं और ढके रहने के लिए मेरे दॉंत मजबूत भी है या नहीं, या कि है भी या नहीं।
पहुँचे हुए हो भाई। आटोवाले को ऐसे हैरान कर दिया, वो भी दिल्ली में?
''अपना और उसका पैर एक साथ रखता हूं और कहता हूं, देख, दोनों एक-से हैं। दोनों पर चादर से बाहर रहने के निशान हैं, सूखी हुई चमड़ी पर बाहर रहने की सफ़ेद धारीदार आदत है।''
मन को छू लेने वाली बात कह दी। सच, दिल्ली की चादर बहुत छोटी है, और पैरों को तो काटकर छोटा करना सम्भव नहीं है।
`दिल्ली जो एक शहर था आलम में आफताब`
जबरज़स्त !
मैं अपने शब्दों में रहता हूं. मेरे शब्दों की छत इन दिनों टपकती है. तुम ही बताओ, कोई टपकती छत के नीचे कितने दिनों तक रह सकता है?...par yahin hun...isi sabad ghar men...har barish men bhigte...aur haan, dilli ko bahut kosa nahi jaata...puratatwik batate hain ki isi dilli men kai dilli zameendoz hai...aadmi ki traf se sochne ki salahiyat bachi hai...bachi rahe...shahar ki traf se bhi sochna hoga...bahrahal, likha kamal ka hai...kalakari dikhti hai...
अनुराग बाबू,
कमाल नाम की चादर अक्सर बहुत छोटी होती है और कलाकारी के पैर उसमें से हुलस-हुलसकर झांकते हैं, दरसन देते हैं. ऐसी नासपीटी कलाकारी को क्यों दोखना, जो पोंकती क़लम-सी निथरे हाशिए को भी बियाबान बना दे. कलाकारी के ऐसे ही निगोड़े समय में तो हांफते हुए हल्दीराम भुजिया की क़सम खाई जाती है. सो, खा लेते हैं.
पुरातात्विक शायद न मानें कि जो ज़मीन के नीचे होता है, उगकर वही बाहर आता है.
और हां, एक ही छुकछुक गाड़ी मरम पर भी रुकती है, और भरम पर भी. माथे पर उज्जर वाला आयोडेक्स लगाकर बूझना चाहिए कि कहां उतरना है.
मैं तो नि:शब्द हूं।
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