कहते हैं कि इमरे कर्तेश को पढ़ने के तुरंत बाद वैसे भी कुछ करने का मन नहीं करता. एक अजीब कि़स्म का अवसाद, घुटने मोड़कर बैठी हुई चुप्पी, हथौड़े की तरह पूरे वजूद पर आ गिरा अकेलापन, अपने होने पर सकुचाता कोई लजीला संवाद, अचानक चीख़ में बदल गई कोई कराह और कुछ बेहद अमूर्त कि़स्म के सवाल आपको बड़े फूहड़ तरीक़े से खींच ले जाते हैं, बाल्कनी में खड़े होकर आप अपने आप में और बेकार होते रहते हैं. पिकासो के पास ब्लू पीरियड था. कर्तेश आपको ग्रे पीरियड में ले जाते हैं. धूल से भरा हुआ, मटमैले रंग का, जहां त्वचा पर बरसों पहले चिपकी गीली मिट्टी त्वचा जैसी ही झुर्रीदार दिखने लगती है.
पार्क में पत्थर की बेंच पर बैठी हर चीज़ पत्थर नहीं होती. पर दिखने वाली और न दिखने वाली हर चीज़ को धीरे-धीरे पत्थर में बदलते जाना है. दिखने वाले और न दिखने वाले पत्थर में. बेंच पर बैठकर देह से अलग होती एक औरत थोड़ी देर बाद पत्थर बन जाती है, फिर उस पर किसी हवा, किसी पानी का असर नहीं होता. जब वह उड़ती है, तो पत्थर की तरह उड़कर कहीं लगती है और जब टूटती है, तो पत्थर की तरह. पत्थर की तरह टूटना सबसे बुरा होता है. जुड़ने की कोई उम्मीद बाक़ी नहीं रहती. पर टूटे हुए टुकड़ों के पास भी आकार होता है, टूटा हुआ आकार. बच्चे उनसे सात चिप्पी खेलते हैं. एक अद्भुत आकार वाला पत्थर देव बन जाता है. एक पत्थर धमकाने के काम आता है और एक डरा हुआ, हमेशा के लिए बेंच के पास ही दुबक कर सदियों लंबी एक नींद में चला जाता है. सदियों बाद उठकर वह इन वक़्तों की गवाही देगा, यह बताएगा कि कैसे एक पत्थर की बेंच पर बैठकर रोती हुई एक औरत पत्थर की बन गई थी और उसके बाद पत्थर की तरह टूट गई थी.
और उसके पास बैठा पुरुष हवा की तरह हल्का होता है. उसके टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती. वह अपने जुड़ने की तलाश नहीं करता कभी. उसका टूटा हुआ चेहरा भी जुड़े हुए चहरे जैसा ही भरम देता है. वह कहना चाहता है, लेकिन सांय-सांय से ज़्यादा कोई आवाज़ नहीं निकल पाती. कहने की तमाम कोशिशों के बाद जो कहा जा सके, वह नहीं होता, जिसे कहने के बारे में सोचा था.
कहानी दोनों के पास होती है. दोनों अपनी कहानी के साथ चलना चाहते हैं, लेकिन वह असंभव लगता है. दोनों अपनी कहानी को नए सिरे से लिखना चाहते हैं, लेकिन वह भी असंभव लगता है. हर निजी कहानी दरअसल कभी न सुनाई जा सकने वाली कहानी होती है. जैसे ही कुछ बोलने के लिए हम मुंह खोलते हैं, आंखें उसी वक़्त खुल जाती हैं. कहानी ख़त्म हो चुकी होती है. हम हमेशा दूसरों की कहानियों में रहते हैं. उनकी कहानी सुनते हैं, उसे ही लिखते हैं. उसी के बीच अपने कुछ प्रसंग जोड़कर बुनकरों का इल्म पाने की कोशिश करते हैं. जो हाथ लगता है, वह भटकते हुए शब्दों का गुच्छा-भर होता है.
कभी उस प्रोटॉन की मजबूरी के बारे में सोचा है, जो चाहे कितनी बग़ावत कर ले, रहना उसे इलेक्ट्रॉन के दायरे में ही है. उसी के केंद्र में भटकना है, अभिशप्त गति से. उस समुद्र को क्यों कोसना, जो अपने ही पानी में डूब मरा हो. बदबख़्गी का ऐसा आलम तो उस आदम के पास भी नहीं, जिसके पास सिर्फ़ एक ही जन्नत थी, जिसने सिर्फ़ एक ही जन्नत खोई थी. बदबख़्त होना क्या होता है, उस आदम से पूछो, जिसके पास कई जन्नतें थीं और हर जन्नत को वह ऐसे खोता रहा, जैसे देह सांस खोती है. पीछे मुड़कर देखना रूमानी प्रतीक हो सकता है, पर यह कितना घातक होता है, उस ऑर्फियस से पूछो, जो स्वर्ग से अपनी बीवी को लौटा कर ला रहा था और पृथ्वी पर पांव रखते ही उसने पीछे मुड़कर देखा कि वह आ रही है या नहीं और उसका सिर कटकर गिर गया. देवदूतों ने उससे वादा मांगा था कि वह पीछे मुड़कर नहीं देखेगा.
पीछे मुड़कर देखना अकेलेपन को चुनौती देना होता है. दूसरों की कहानी को झांककर देखना अपनी कहानी न कह पाने का शोक होता है.
और अकेलापन क्या होता है. एक हथौड़ा ही न, जो पत्थर पर गिरता है, तो पत्थर टूटकर बिखर जाता है. लोहे पर गिरता है, तो लोहा और मज़बूत हो जाता है. सब कुछ तो मेरे चारों ओर ही है. अकेलापन किस बात का? किस घड़ी अकेले होते हैं हम? स्मृतियां अकेला होने देती हैं क्या? डर, आशंका, अनजाने आई कोई मुस्कान या माइग्रेन की तड़तड़ अकेले होने देते हैं? जो मर चुके हैं, वे तो मेरे अकेलेपन में कभी साथ नहीं छोड़ते. जो अब भी कहीं जी रहे हैं, वे मेरे अकेलेपन का साथ देने नहीं आते.
`स्क्रीम ऑफ द आंट्स´ के अंत में एक पात्र बताता है: `मैं अकेले-अकेले पूरी दुनिया घूम आया, मैंने सबसे ऊंचे पहाड़ पार किए, सातों समंदरों को लांघा, रेगिस्तानों और दलदलों से गुज़रा और एक दिन मैं लौट आया. मैंने देखा, जो मैं खोज रहा था, वह पत्तियों से लटकती पानी की बूंद में छिपी थी, पंखुडि़यों पर उसका पता लिखा था.´
(इमरे कर्तेश की `फेटलेस´ और `लिक्विडेशन´ पढ़ने के बाद उससे जुदा कुछ बिंब. हमेशा की तरह धूल-धुंधले. पेंटिंग मार्क शाशा की है. उनकी वेबसाइट से साभार.)
13 comments:
इमरे कर्तेश ki fateles padha tha kuch roz phle...aapka gadya padhte hue nirmalji ki kahani dhoop ka ek tukda yaad ho aai...ho sakta hai park...bench...aadmi...aurat...wgairah...khair...aur yh to hai hi...स्मृतियां अकेला होने देती हैं क्या? डर, आशंका, अनजाने आई कोई मुस्कान या माइग्रेन की तड़तड़ अकेले होने देते हैं? जो मर चुके हैं, वे तो मेरे अकेलेपन में कभी साथ नहीं छोड़ते. जो अब भी कहीं जी रहे हैं, वे मेरे अकेलेपन का साथ देने नहीं आते...
ये काईदार चट्टान पर बैठ कर खिंचाई मेरी फ़ोटू कहां से मिली गीत भाई?
और सही में ... इमरे कर्तेश को पढ़ने के तुरंत बाद वैसे भी कुछ करने का मन नहीं करता!
बहुत महत्वपूर्ण पोस्ट!
शुक्रिया दोस्त!
कुछ पढ़ा नहीं है. पढ़ा जाये? कौनवाली पढ़ें?
ज़रूर पढ़ा जाए. पहले 'फेटलेस', फिर 'लिक्विडेशन'.
और 'फेटलेस' पर जो फिल्म बनी है, कहीं मिले, तो उसे भी देखा जाए. अपने को तो मिली नहीं.
यह तुम्हारे रंग की पोस्ट है। तुम इसी रंग में फबते हो। जमते हो। यह बात शायद मैंने पहले भी तुम्हें कही थी। इन्हीं छोटी-छोटी लेकिन बहुत ही मानीखेज बातों में, बतकही में, कहन में, उसके ढब और ढंग में।
कमाल का शब्द सयोंजन है......
bahut accha Geeta Bhai Hardik Badhai
Shaleen
bahut khoobsurat abhivyakti...aabhar
kuchh bolne ko nahin... main bhi patthar mahsoos raha hun apne andar..
किस घड़ी अकेले होते हैं हम? स्मृतियां अकेला होने देती हैं क्या?....
औरत , कमोवेश रोज ही टूटती है और फिर नयी बन जाती है | फिर से टूटने के लिए | वो सिर्फ इक बार ही टूटना चाहती है | लेकिन उसे बार बार तोडा जाता है | ये देखने के लिए की क्या है अन्दर आखिर जो वो रोज फिर से नयी बन जाती है | ये रहस्य कोई भी नहीं जान पाता | वो तो बिलकुल नहीं जो उसे तोड़ कर देखना चाहता है और खुद से जोड़ लेना चाहता है | वो भूल जाता है ऊपर -ऊपर से जोड़ लेने से कभी कोई चीज नहीं जुड़ती| जैसे बच्चे बचपन में कोई खिलौना सिर्फ इसलिए तोड़ देते है की वो जानना चाहते है की उसके सिध्दांत क्या है ? क्या है उसके अन्दर जो बजता है | गाता है | नाचता है | और तोड़ने के बाद --फिर जोड़ने की कोशिश करता है |अन्दर से टूटा हुआ खिलौना बाहर बाहर से जुड़ता तो दिखने लगता है | लेकिन पहले सा बजता नहीं | थिरकता नहीं |औरत भी ऐसी ही है टूटती है जुड़ती है लेकिन अन्दर के भीतर के बारीक तार टूट जाते है.......खैर
अकेलापन --सही कहा | हम कभी अकेले नहीं होते | यादों में जीने वालों के पास इक मेला हमेशा लगा रहता है | वो जानते है की हर आने वाला पल इक सपना है | और गुजरा हुआ पल ही बस अपना है | वो गुजरे पल में रहते है | यादों के सब जुगनू जंगल में रहते है | और हम इन जंगलों से कभी आजाद नहीं होते | चलिए हमें ये यादों के जुगनू घेर ले इससे पहले ये बात यही ख़तम कर देती हूँ |
गीत जी,
आपका अपना व अन्य सुधी साहित्यकारों का लिखा नायाब साहित्य
पढने को मिले फिर उनसे परिचित होना ... आप ही से मयससर है... शुक्रिया.
'इमरे कर्तेश' का ग्रे पिरियड...
अवसाद का शाश्वत या अवसाद की परिभाषा.
पत्थर की तरह टूटना सबसे बुरा होता है...
कितना अनुभूत वास्तव है यहाँ.
"...जो मर चुके हैं वे तो मेरे अकेलेपन में कभी साथ नहीं छोड़ते.जो अब भी कहीं जी रहे हैं, वे मेरे अकेलेपन का साथ देने नहीं आते...".
"...जो मैं खोज रहा था, वह पत्तियों से लटकती पानी की बूँद में छिपी थी,पन्खुड़ीयों पर उसका पता लिख था..."
बस, सिलसिलेवार पढ़ते ही चले जाएँ...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति गीत जी | आपके हर शब्द बड़े गहरे अर्थ लिए होते है | आपका लिखा हर छोटा वाक्य घंटों दिमाग में घूमता रहता है | कौनसा अर्थ दूँ इसे यही सोचती रहती हूँ | जबकी जानती हूँ की आपने इसे कोई और ही अर्थ से लिखा होगा | हर बात में से कई बातों के सिरे निकलते हैं | और हर वाक्य में जैसे कोई कहानी छुपी हुई हो | इक बार में पढ़ कर कोई अपनी राय कैसे दे दे ? इसलिए आपकी लेखनी की क्या तारीफ़ करूँ सिर्फ प्रणाम ही कर सकती हूँ | बरक़रार रहे ये अन्दाजें बयाँ आमीन |
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