Tuesday, September 30, 2008

अंधेरे की परिक्रमा


थकान इतनी छायादार हो सकती है, उससे पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। मैं थकान के नीचे लेट गया। आंखें बंद किए। निर्मल जी की एक पंक्ति दिमाग़ में लगातार गूंजती रही- `जीवन में असफल होने का फ़ायदा यह है कि मेरे पास अपने होने के अलावा और कुछ नहीं है, और मेरे पास जब सिर्फ़ `मैं´ है, तो उसका मैं लिखने में ही इस्तेमाल कर पाऊंगा।´

वह कौन-सा पेड़ था, जिसमें से थकान चूती थी? जिसके नीचे लोहे की एक बेंच पर मैं लेटा था। वे छोटे-छोटे फूल थे या छोटे-छोटे पत्ते, जो पेड़ से झरे थे और आकर उसके बालों में उलझ गए थे। पीले टुकड़े। जिनका झरना सृष्टि की सबसे निश्शब्द क्रिया थी, जाकर उसके बालों में अटक जाना सबसे शालीन घुसपैठ। ख़ुद को धरती में जाकर रोपने की बजाय उसके बालों में रोप देना प्रेम का सबसे छोटा बीज ही कर सकता है। उस वक़्त तुम्‍हारे बाल तुम्‍हारे चेहरे पर आ गए थे, और तुम्‍हारी वह तस्‍वीर याद आ गई थी, जो स्विट्ज़रलैंड में खींची थी, जब तुम पानी के जहाज़ के डेक पर खड़ी होकर सिगरेट का पैकेट देख रही थीं.

रात इतनी अंधेरी नहीं थी कि मैं अंधेरे से घबराऊं। चांद इतना बड़ा भी नहीं था कि दो उंगलियों के बीच लेने से कतराऊं। पर ठीक उसी क्षण मुझमें थकान आ गई थी। भीतर ही भीतर कोई उस पराजय पर हंस रहा था। हंसते हुए कह रहा था- ले, फिर तुझको मात मिली।

लाइब्रेरी के सामने सड़क की रेलिंग पर बैठकर एक दिन हमने सूरज को डूबते हुए देखा था। वह जगह सूरज को भी बहुत पसंद थी। हर रोज़ वहीं आकर डूबता था। हम उसे धीरे-धीरे पहाड़, उसके आसपास की हरियाली, कहीं-कहीं डिब्बों की तरह बने मकानों और उड़ते-उड़ते औचक ही मुड़ जाने वाले परिंदों के लैंडस्केप में खोते हुए देख रहे थे।

उसने पूछा- यह डूबते हुए बाय भी नहीं कहता?

मैंने कहा- जो कहता है, हम उसे सुन नहीं पाते।

उसने कहा- सुनते हैं, तभी तो शाम को अंत माना जाता है। सुना नहीं है, न जाने किस गली में जि़ंदगी की शाम हो जाए...

मैंने कहा- ऐसा नहीं है। डूबना, दरसअल एक निहायत सच्ची कि़स्म की उम्मीद है।

उसने कहा- लेकिन तुम्हारी उम्मीद तो मैं हूं?

मैंने कहा- हां, तुम मेरी सूरज हो और मैं पृथ्वी की तरह तुम्हारी परिक्रमा करता हूं। तुम्हीं में डूबता हूं और तुम्हीं से उग आता हूं। जैसे, ऐसे ही किसी लैंडस्केप से उगती है सुबह।

उसने कहा- तुम चलते पुर्जे हो। अच्छे-से जानते हो कि तुम्हारे भीतर अंधेरा भरा है, और तुम्हें रोशनी की परिक्रमा करनी है।

एक पल में तुमने साबित कर दिया था कि मैं अंधेरे से भरा हूं। यह भी मानोगी कि अंधेरा कितना भी गाढ़ा हो जाए, रहता वह अकेला ही है? रोशनी कभी उसकी मित्र नहीं बन पाती, बस उसे चीरते हुए गुज़र जाती है। मानोगी कि इस दुनिया में पहले अंधेरा आया था और उसके अकेलेपन पर रहम करने के लिए पीछे-पीछे रोशनी आई थी?

प्रेम के इस सौरमंडल में मैं पृथ्वी की तरह तुम्हारे चारों ओर घूमता हूं। हमसे बाहर एक मिल्की वे है, उससे बाहर एक बहुत बड़ी आकाशगंगा, उसके बाहर जाने कितनी आकाशगंगाएं... ये सब भी घूम रही हैं। लेकिन इनके पास कोई सूरज नहीं। ये अभी भी अंधेरे के ही चारों ओर घूम रही हैं।

मैं, जो तुम्हें प्रकाश मान तुम्हारे चारों ओर घूम रहा हूं, क्या वृहत्तर रूप से अंधकार की ही परिक्रमा कर रहा हूं?

पर वह तो मैं ख़ुद ही हूं।

आज जब मैं यहां अकेला लेटा हूं, थकान के इस पेड़ के नीचे, किताबों का बस्ता ज़मीन पर फेंक, तो कोई पत्ता क्यों नहीं गिरता? इच्छा, पीड़ा, प्रेम, उम्मीद का वह पत्ता? जिसका आवाह्न तुम्हारे खुले हुए केश करते थे। कहां गया वह पत्ता, क्या मेरे अकेलेपन, अंधेरे और शून्यता से टकराकर लौट गया, पेड़ और मेरे बीच किसी अतल में लटका हुआ-सा? तुम क्यों नहीं हो यहां? क्या पत्तों की डंठल में गोंद बनकर खो गई हो? पलकों से छूकर पत्तों को हरा करती हो? जब आसमान पर चिपके सारे तारों की गोंद सूख जाएगी, तो क्या करोगी?

तुम रोशनी क्यों थीं, जो एक पल में खो जाती है? जो चमक से हुलसाती है, फिर चपलता से हट जाती है? जो जितनी तेज़ी से आती है, उतनी ही तेज़ी से लौट भी जाती है?

आज मैं यहां अकेला हूं और थकान के इस पेड़ को घूर-घूरकर देख रहा हूं। इस पर अब भी कोई नाम नहीं खुदा। उस दिन तुम्हारा बहुत मन था कि इसके मोटे तने पर हम दोनों का नाम खुदा हो।

तुमने कहा- तुम चाक़ू क्यों नहीं हो? मैं तुम्हें उठाती और इस पेड़ पर हम दोनों का नाम गोद देती। हमारा प्रेम चाक़ू की नोंक पर उगा हुआ दरख़्त होगा.

मैंने पूछा- चाक़ू ही क्यों?

तुमने कहा- कुछ भी। मतलब इस वक़्त तुम्हें लोहा होना चाहिए था। तलवार होते, तो भी चल जाता।

मैंने कहा- नहीं, मैं लोहा नहीं हूं। कभी लोहा बना भी, तो तलवार का लोहा नहीं बनूंगा। वह प्रेम के खि़लाफ़ बोलती है।

तुमने पूछा- फिर क्या बनोगे मेरे प्लास्टिक के भालू?

मैंने कहा- मिट्टी हूं मैं। लोहा बनने की उम्मीद से बहुत दूर। फिर भी कभी लोहा बना, तो बहुत छोटी कील का लोहा बनूंगा। चाक़ू और तलवार हमेशा बांटने का काम करते हैं। छोटी-सी कील ही होती है, जो जोड़ती है, अपनी नगण्यता और लघुता में भी।

मैं आज तक नहीं समझ पाया, उसके बाद तुम रोने क्यों लगी थी?

क्या तुम्हारी आकांक्षाओं में कीलों की कोई जगह नहीं थी? या किन्हीं पुरानी कीलों का दर्द उग आया था, जिनसे देह और दुपट्टा दोनों छिदे हुए थे? क्यों रोई तुम इतना कि तब से जो मेरी हिचकी बंधी है, पृथ्वी का आधा पानी पी लेने के बाद भी जाती नहीं? क्या लघु और नगण्य होने की मेरी आकांक्षा से इतना घात हुआ? पर यह तो हर सूरज जानता है कि उसके चारों ओर घूमता ग्रह उससे छोटा ही होता है। पेड़ को देखते हुए क्यों रोईं तुम? क्या नहीं जानती थीं कि पेड़ को देखते हुए रोना, पेड़ बनकर रोने जैसा ही है? कि रोते हुए अंधेरे को देखना, रोशनी से घात करना है? क्या वह रोना अंधेरे की उदारता और रोशनी की चपलता के बीच एक को चुनने का क्षण था और क्षण-भर का रोना, दरअसल, कभी क्षण-भर का रोना होता ही नहीं।

कितनी देर तक रोती रहीं तुम? सुबकते हुए। बिलखते, फिर बिखरते। मैं कैसे कहूं कि मेरी हथेलियां कभी इतनी बड़ी नहीं हो पाईं कि एक बार, पूरा का पूरा, तुम्हें सहेज सकता उसमें?

क्‍यों कहा था तुमने, एक दिन लौटकर आऊंगी मैं, जैसे सदियों बाद भी अचानक, लौटकर आती हैं स्मृतियां। तुम मुझे भूल जाने के लिए मत याद रखना। अपनी कही हर बात को झूठ होते देखना रोशनियों का प्‍यारा शग़ल होता है.

आज मैं यहां अकेला लेटा हूं और बाक़सम, बेंच मुझे बहुत गीली लग रही है। रोने की वह आवाज़ इसकी सलाखों में एक शाश्वत ठंडक बनकर रहने लगी है। उस दिन जब तुम रोई थीं, मैं भीतर से हार गया था। देखो, न मैं चाक़ू बन पाया, न तलवार। न ही छोटी वाली कील। सच, तुम सच रोई थीं। मिट्टी में लोहा हो सकता है, लेकिन लोहे के गुण नहीं।

आज मैं यहां अकेला बैठा हूं। मैं इतनी देर तक अंधेरे को घूरता रहा हूं कि मेरी भूरी पुतली का रंग काला हो गया है। अंधेरे के कनस्तर में बार-बार झांकता हूं। कहीं जुगनू भी चमक जाए, इस उम्मीद से। ताकि रोशनी में तुम दिख जाओ।

तुम इतनी देर तक आसमान को घूरती रही कि एक दिन तुम्‍हारी आंखों का रंग नीला हो गया. तुमने कहा, तुम्‍हारी आंखें अंतरिक्ष हैं और बाहर से देखने पर उसमें आसमान चिपका हुआ लगता है. तुम बार-बार सिर झुकाती हो और अंतरिक्ष में झांकने लगती हो. जैसे कोई एक कील, सितारों के झुरमुट में कहीं खो गई हो...

आज मैं यहां अकेला लेटा हूं और रोशनी की लकीर, सूरज की डूब, थिर होकर पत्तों का गिरना ढूंढ़ रहा हूं। ढूंढ़ रहा हूं एक बहुत छोटी कील, जिससे इस पेड़ के तने पर कोई नाम गोद सकूं...

(शुरू हुई एक कहानी का कोई तो भी हिस्‍सा, पेंटिंग- हेनरी मातीस)

11 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

मैंने कहा- मिट्टी हूं मैं। लोहा बनने की उम्मीद से बहुत दूर। फिर भी कभी लोहा बना, तो बहुत छोटी कील का लोहा बनूंगा। चाक़ू और तलवार हमेशा बांटने का काम करते हैं। छोटी-सी कील ही होती है, जो जोड़ती है, अपनी नगण्यता और लघुता में भी।


वाह सर मजा आ गया बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने बाकी बीच बीच में तो कई ऐसी बातें लिखी हैं आपने कि पढकर रूह भी खुश हो गई बहुत धन्‍यवाद और बधाई बेहतरीन लेख के लिए बस थोडा सा अंतराल कम करो लेखन का

Anonymous said...

बहुत सुंदर लिखा आपने। हो सकता है मेरे शब्‍द कम हों उस सुंदरता के बारे में लिख सकने के लिए। बहुत गहराई है आपके लेखन में। बधाई।

इसे पढ़ते हुए कुछ और पंक्तियां याद आ गईं-

-प्रेम के मुहाने पर
अभी तक आंसुओं के लिए जगह है,
और प्रेम की क़ब्र भरने के लिए
पर्याप्‍त मिट़टी नहीं
लेकिन सूर्य के अस्‍त होने पर हम एक-दूसरे को
घायल करने या काट खाने के लिए बिस्‍तर पर न जाएं
चह चीज़ स्‍याह चीज़ों के लिए है

और कुछ ऐसा भी याद आया


किसी क्षण का अद्रश्‍य हो जाना
शब्‍दों के‍ बिना बोलना, सिर्फ वर्षा की
गिरती कुछ बूंदे सुनना

सिर्फ किसी छाया का उड़ना ।

Ashok Pande said...

बढ़िया है गीत भाई! पढ़ तो कल ही गया था पर आज दुबारा पढ़ने पर कई सारे और मानी खुले. बेहतरीन. उम्मीद है कहानी जल्दी पूरी हो जाएगी.

anuradha srivastav said...

सुन्दर लेखन..........

वर्षा said...

सुंदर है।

रंजू भाटिया said...

बहुत बेहतरीन ...

pratibha katiyar said...

kya baat hai. bahut khoobsurat....

Surabhi said...

Itne din baad kuch itna sundar padha.

Dhanyawaad.

Surabhi said...

Itne din baad kuch itna sundar padha.

Dhanyawaad :)

Surabhi said...

Amazing. :)

sarita sharma said...

मिलन और विरह के समय प्रेम की आर्द्रता से भरपूर रचना.जो उजाला और उम्मीद किसी के साथ होने पर उपस्थित हो जाते हैं अकेलेपन में बस अँधेरा और थकान दे जाते हैं.प्रकृति और प्रेम का जादुई अहसास.