मेरी चुप्पी सुन वह खिलखिलाई। मैं सिर झुकाकर बैठा था। उससे पहले वह धीरे-धीरे मेरे बचे हुए बालों के बीच उंगलियों से सैर कर रही थी। उससे पहले वह सामने बैठी थी और मैं उसके कांपते हुए होंठों को देख रहा था। उससे पहले वह नहाकर निकली थी और उसके माथे पर पानी की एक बूंद ढुलकने को थी। उससे पहले वह अंगड़ाई ले रही थी और उसका शरीर मध्ययुग के किसी खंडहर की तरह टूट रहा था, भसक रहा था। एक-एक ईंट धप से गिर रही थी और धूल बनकर बिखर जाती थी।
उससे पहले उसने पूछा था, तुम्हें प्यार करना आता है?
उसके पूछने से पहले ही मैंने बता दिया था, नहीं, मैं एक पुरुष हूं।
मेरे ऐसा बताने से पहले ही उसने अपनी पलकों से मेरे गाल पर गुदगुदी की थी।
उसके ऐसा करने से पहले ही मैंने हल्की फूंक से उसके कान के बूंदे हिला दिए थे।
उसके कान की कांपती हुई लौ देहरी पर रखे दिए की कांपती हुई लौ की तरह थी।
उसने कहा, और...
मैंने कहा- और... और मैं तुम्हारे माथे पर बूंद की तरह चिपका रहना चाहता हूं, मैं सूरज का अवतार हूं, जो तेरे माथे पर रहने के लिए ही आया है, मैं चांद का अर्क हूं, तेरी आंखों में रहता हूं, तुझे पता है, तेरी आंखों की सफेदी मुझसे है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और मैं उंगली की पोर पर बैठा तिल हूं, अकेला, जैसे पूरे अंधेरे में आसमान पर अकेला बैठा हुआ तारा, किसी दूसरे तारे के इंतज़ार में बार-बार अपने गिरने को स्थगित करता, तेरे कानों की लौ में मैं बूंदा बनकर रहता हूं और तेरे लंबे केश में लट बनकर, जिसे सुलझाना तुम जानकर टाल देती हो, मैं झूठ-मूठ का रेगिस्तान हूं और तुम सचमुच का नख़लिस्तान, मैं तुममें इस तरह मिल जाऊं कि मेरी रेत का हर कण नन्हे हरे पत्ते में बदल जाए, मुट्ठी-भर बालू अंजुरी-भर पानी बन जाए... एक बहुत पुरानी छुअन हूं, जो अपने अहसास में गीली होती रहती है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और तुम एक जंगल हो, जिससे मैं हरी पत्ती बनकर मिलता हूं। तुम एक नदी हो, जिसमें मैं एक धारा की तरह बहता हूं। कोई झुरमुट हो, जिसमें मैं मख़मली ख़रगोश की तरह छुप जाता हूं। तुम एक दूरी हो, जो मेरे पीछे हटने से बनती है। तुम एक नज़दीकी हो, जो तुम्हारे आगे बढ़ने से बनती है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और मैं तुम्हें किसी पुल की पुल की तरह पार करना चाहता हूं... पर पुल पार करने से महज़ पुल पार होता है, नदी तो पार नहीं होती। मैं... मैं तुम्हें नदी की तरह डूबकर, तैरकर पार करना चाहता हूं...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और?
उसने कहा, हां, और...
मैं ख़ामोश हो गया। मैं अपनी भाषा का कवि था, जिसे शब्दों का कम से कम प्रयोग करने का संस्कार मिला था। वह न जाने किस भाषा की कवि थी, उसे और... और शब्द चाहिए थे।
उसने कहा, और...
मैं फिर ख़ामोश ही रहा।
मेरी चुप्पी सुन वह खिलखिलाई। मैं सिर झुकाकर बैठा था। वह अंगड़ाई ले रही थी और उसका शरीर मध्ययुग के किसी खंडहर की तरह टूट रहा था, भसक रहा था। एक-एक ईंट धप से गिरती थी और धूल बनकर बिखर जाती थी।
खंडहर की दीवारें भसकने से पहले थोड़ी देर तक हवा में ही अटकी रही थीं। वे मेरे इंतज़ार में अटकी थीं। पेड़ से टूटे किसी पत्ते की तरह, ज़मीन पर गिरने से पहले वह देर तक हवा में लहराती रही थी। वह मेरी ही प्रतीक्षा में लहरा रही थी।
जबकि मैं सिर झुकाए बैठा था। वह फिर खिलखिलाई। मैंने सिर उठाकर देखा। खिलखिलाते हुए वह एक चिडि़या बन गई। खिलखिल करती चिडि़या।
खिलखिल फड़फड़ाते पंखों से मेरे सिर के पास आई। उसके पंखों की हवा मैं अपने गालों पर महसूस कर सकता था।
उसने कहा... प्रेम शब्दों से नहीं, चुप्पी से करना चाहिए... बोल की आवाज़ धूल जैसी होती है, प्रेम को सिर्फ़ मैला करती है...
पंख फड़फड़ाती खिलखिल धूल से भरे कूलर पर बैठ गई। सिगरेट की एक डिबिया पर ठोंगा मारती हुई।
* * *
उससे पहले उसने पूछा था, तुम्हें प्यार करना आता है?
उसके पूछने से पहले ही मैंने बता दिया था, नहीं, मैं एक पुरुष हूं।
मेरे ऐसा बताने से पहले ही उसने अपनी पलकों से मेरे गाल पर गुदगुदी की थी।
उसके ऐसा करने से पहले ही मैंने हल्की फूंक से उसके कान के बूंदे हिला दिए थे।
उसके कान की कांपती हुई लौ देहरी पर रखे दिए की कांपती हुई लौ की तरह थी।
उसने कहा, और...
मैंने कहा- और... और मैं तुम्हारे माथे पर बूंद की तरह चिपका रहना चाहता हूं, मैं सूरज का अवतार हूं, जो तेरे माथे पर रहने के लिए ही आया है, मैं चांद का अर्क हूं, तेरी आंखों में रहता हूं, तुझे पता है, तेरी आंखों की सफेदी मुझसे है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और मैं उंगली की पोर पर बैठा तिल हूं, अकेला, जैसे पूरे अंधेरे में आसमान पर अकेला बैठा हुआ तारा, किसी दूसरे तारे के इंतज़ार में बार-बार अपने गिरने को स्थगित करता, तेरे कानों की लौ में मैं बूंदा बनकर रहता हूं और तेरे लंबे केश में लट बनकर, जिसे सुलझाना तुम जानकर टाल देती हो, मैं झूठ-मूठ का रेगिस्तान हूं और तुम सचमुच का नख़लिस्तान, मैं तुममें इस तरह मिल जाऊं कि मेरी रेत का हर कण नन्हे हरे पत्ते में बदल जाए, मुट्ठी-भर बालू अंजुरी-भर पानी बन जाए... एक बहुत पुरानी छुअन हूं, जो अपने अहसास में गीली होती रहती है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और तुम एक जंगल हो, जिससे मैं हरी पत्ती बनकर मिलता हूं। तुम एक नदी हो, जिसमें मैं एक धारा की तरह बहता हूं। कोई झुरमुट हो, जिसमें मैं मख़मली ख़रगोश की तरह छुप जाता हूं। तुम एक दूरी हो, जो मेरे पीछे हटने से बनती है। तुम एक नज़दीकी हो, जो तुम्हारे आगे बढ़ने से बनती है...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और... और मैं तुम्हें किसी पुल की पुल की तरह पार करना चाहता हूं... पर पुल पार करने से महज़ पुल पार होता है, नदी तो पार नहीं होती। मैं... मैं तुम्हें नदी की तरह डूबकर, तैरकर पार करना चाहता हूं...
उसने कहा, और...
मैंने कहा, और?
उसने कहा, हां, और...
मैं ख़ामोश हो गया। मैं अपनी भाषा का कवि था, जिसे शब्दों का कम से कम प्रयोग करने का संस्कार मिला था। वह न जाने किस भाषा की कवि थी, उसे और... और शब्द चाहिए थे।
उसने कहा, और...
मैं फिर ख़ामोश ही रहा।
मेरी चुप्पी सुन वह खिलखिलाई। मैं सिर झुकाकर बैठा था। वह अंगड़ाई ले रही थी और उसका शरीर मध्ययुग के किसी खंडहर की तरह टूट रहा था, भसक रहा था। एक-एक ईंट धप से गिरती थी और धूल बनकर बिखर जाती थी।
खंडहर की दीवारें भसकने से पहले थोड़ी देर तक हवा में ही अटकी रही थीं। वे मेरे इंतज़ार में अटकी थीं। पेड़ से टूटे किसी पत्ते की तरह, ज़मीन पर गिरने से पहले वह देर तक हवा में लहराती रही थी। वह मेरी ही प्रतीक्षा में लहरा रही थी।
जबकि मैं सिर झुकाए बैठा था। वह फिर खिलखिलाई। मैंने सिर उठाकर देखा। खिलखिलाते हुए वह एक चिडि़या बन गई। खिलखिल करती चिडि़या।
खिलखिल फड़फड़ाते पंखों से मेरे सिर के पास आई। उसके पंखों की हवा मैं अपने गालों पर महसूस कर सकता था।
उसने कहा... प्रेम शब्दों से नहीं, चुप्पी से करना चाहिए... बोल की आवाज़ धूल जैसी होती है, प्रेम को सिर्फ़ मैला करती है...
पंख फड़फड़ाती खिलखिल धूल से भरे कूलर पर बैठ गई। सिगरेट की एक डिबिया पर ठोंगा मारती हुई।
* * *
('पुल पार करने से महज़ पुल पार होता है, नदी पार नहीं होती', यह कवि नरेश सक्सेना की पंक्ति है,
जिसका इस कहानी में प्रयोग किया गया है.)
24 comments:
बहुत अच्छा बहुत गहरा लिखा है, परन्तु प्रेम को शब्द चाहिए ही होते हैं नहीं तो वह अना गूँगा सा घुटता रहता है।
घुघूती बासूती
khalis kavita...aksar tikhe aur rajnitik preksha ke liye is form ko hindi men kavion ne upyog men laya hai...shayad prem ki nazuk dor pr itni door chalna sambhaw nhi ho pata...aapse yh sadh saka hai...badhai...aisi lambi...aakhyanparak kavitayen aur agar hai...to samne layen...
superb !!! bahut sundar kramtal, kavita ke shuruaat ko parhne ke bad jab bagal me laga apka chitra dekha to wo Balon ke bare me likhi pankti bahut sateek lagi...bahut sadha hua lekhan..
हर भाषा के कवि को संस्कार बोलने के ही मिलते हैं, चुप रहने के नहीं मिलते… मगर आप तो गज़ब कर जाते हैं… इतना बोल जाते हैं?
प्रेम शब्दों से नहीं, चुप्पी से करना चाहिए... बोल की आवाज़ धूल जैसी होती है, प्रेम को सिर्फ़ मैला करती है.
बहुत सुंदर गहरे उतर गए भाव इस कहानी में ...
भावोँ की तूलिका से,
बिखरे,निखरे,रँग!
- लावण्या
उसने कहा... प्रेम शब्दों से नहीं, चुप्पी से करना चाहिए... बोल की आवाज़ धूल जैसी होती है, प्रेम को सिर्फ़ मैला करती है...
पंख फड़फड़ाती खिलखिल धूल से भरे कूलर पर बैठ गई। सिगरेट की एक डिबिया पर ठोंगा मारती हुई।
गीत जी ये ठोंगा उसने सिगरेट की डीबिया पर ही क्यों मारा। हा हा हा
बहुत बढ़िया जी। पहले की तरह इस बार भी पढ़कर मज़ा आ गया। आपकी लेखनी मुझे सम्मोहित करती है। सच में। शुभकामनाएं
सुन्दरतम। ऐसे लेख ही हिंदी साहित्य को गरिमा प्रदान करते हैं। ब्लाग पर जो कुछ भी अभी लिखा जा रहा है उसमें से ज्यादे क्षणभंगुर होता है पर ऐसा लेखन तो चिर स्थाई होता है। ऐसे लेखन का महत्त्व सदा बना रहेगा। बहुत ही उम्दा लेखन। वाह, वाह, वाह।
http://nanihal.blogspot.com
marm ki baat honthon se na kaho...maun hi bhavna ki bhaashaa hai...aaj bhi gazab..
Adbhut! Yeh bhaav bas bas prem hi kahe aur sune jaa sakte hain. Kuch bhiga gayi yeh, aur kuch gunguna bhi gayi. Yeh toh mere prem ki kavita hai (Uski taraf se unkahi).
Sundar!
बहुत अच्छा.
वही है कहा गया जो कहा नहीं गया.
ख़ामोशी गाती जाती है
ख़ामोशी सुनती जाती है
दरमियानी वहम है बस इतना,
कोई गाता है,कोई सुनता है
मैं अविभूत हूं..
गहन अनुभूति-अति भावपूर्ण, बधाई.
शब्दों से जितना गहरा उतरा जा सकता है, पानी में, नैनो में, दिल में, खामोशी में.... यह पोस्ट वैसे ही उतर रही है.. Deep, Deep and Deep...
आज बहुत दिन बाद वैतागवाड़ी पर आना हुआ। आज की सुबह अच्छी बीतेगी। आप प्रेरित करते हैं।
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उससे पहले उसने पूछा था, तुम्हें प्यार करना आता है?
उसके पूछने से पहले ही मैंने बता दिया था, नहीं, मैं एक पुरुष हूं।
मेरे ऐसा बताने से पहले ही उसने अपनी पलकों से मेरे गाल पर गुदगुदी की थी।
उसके ऐसा करने से पहले ही मैंने हल्की फूंक से उसके कान के बूंदे हिला दिए थे।
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सुन्दर लेखनी !
वैसे हमने भी आपके लिखने से पहले ही टिप्पणी दे दी थी , पता नही कहाँ चली गयी , सो दुबारा दे दी है !
प्रेम शाश्वत है। प्रेम की खूबसूरत और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ित, के लिए बधाई।
बहुत बढि़या
नव्यवेश
कहां लंबी कहानियों के चक्कर में पडे हो। मुझे लगता है तुम इसी तरह की रचनात्मकता में फबते हो। खुलते हो और खिलते हो। छोटी छोटी बातें, दूर तक मार करने वाली। यह सघनता और सांद्रता, फिर पढ़ने को मिलेंगी, शुभकामनाअों के साथ।
रवींद्र व्यास, इंदौर
प्रेम शब्दों से नहीं, चुप्पी से करना चाहिए... बोल की आवाज़ धूल जैसी होती है, प्रेम को सिर्फ़ मैला करती है.
"bhut sunder abheevyktee"
geet ji, socha tha punjab me rahunga to aap ka sanidhya milega. magar jindagi ki yayawari ne punjab chhuda diya. aajkal haribhoomi haryana me hun. kuchh samay se hi vataibadi dekhna shuru kiya hai. ek-ek karke sabhi older post padh raha hun. lagbhag aadhi pad chuka hun. prem ki abhivaykti me aapka jawab nahi. parnam... dharmvir( pardeep kuswah ka room mate raha hun)
बहुत सुन्दर!
अति सुंदर गीत जी, आपका जबाब नहीं।
प्रेम के अंतरंग अहसास !
सुन्दर ।
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