फ़ज़ल ताबिश को उर्दू का बांका और कड़वा शायर कहा जाता है. उनकी फक्कड़ जि़ंदगी और बेपरवाह तबीयत के बहुत कि़स्से हैं. शायरी का एक संग्रह 'रोशनी किस जगह से काली है' ख़ासा चर्चित था. एक उपन्यास 'वो आदमी' की भी बराबर बात होती है. उनके अदब से कुछ चीज़ें यहां पेश हैं. देखिए इनका बांकपन...
ग़ज़ल
शखि़्सयत है कि सिर्फ़ गाली है
जाने किस शख़्स ने उछाली है
शहर दर शहर हाथ उगते हैं
कुछ तो है जो हर एक सवाली है
जो भी हाथ आए टूट कर चाहो
हार कर ये रविश निकाली है
मीर का दिल कहां से लाओगे
ख़ून की बूंद तो बचा ली है
जिस्म में भी उतर के देख लिया
हाथ ख़ाली था अब भी ख़ाली है
रेशा रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है
दिन ने चेहरा खरोंच डाला था
जब तो सूरज पे ख़ाक डाली है.
ग़ज़ल 2
दिल कहे दीवाना बनकर दरबदर हो जाइए
दूसरा दिल हो कि शाम आ पहुंची घर को जाइए
कौन सी आवारगी यारी कहां की सरख़ुशी
घर में पीजै मीर को पढि़ए वहीं सो जाइए
आने वाले वसवसे बीते दिनों से भागकर
कुछ न बन पाए तो रस्तों में कहीं खो जाइए
हमको सब मालूम है मालूम होने का भरम
बस ये औलादें ही बस में हैं यही बो जाइए
घर के दीवारों के गिरने की ख़बर मुझको भी है
आप ख़ुश होना अगर चाहें तो ख़ुश हो जाइए
मांगिए हर एक से उसके गुनाहों का हिसाब
और सारे शहर में सबके ख़ुदा हो जाइए.
उस देस में
धूप अपना बिस्तर लपेटकर
हमारे छत पर नहीं रखती
सफ़र पर जाने के आखि़री लम्हे तक जाड़े
रहते हैं हमारे घर
लोटते-पोटते हैं मगर जाते वक़्त
कुछ भी छोड़ कर नहीं जाते गर्मियों के लिए
हमारे घर आते हैं पैसे
दौलतमंद रिश्तेदारों की तरह खड़े-खड़े
रोकना चाहते हैं हम उन्हें
उन्हें जाना होता है पार्टी, डिनर या लंच में
कौन बुलाता है पैसों को दावतों में
हमारे घर आती है मौत
बैठती है पलंग पर ज़मीन पर कुर्सियों पर
ले जाती है हमारे किसी को
धूप, जाड़े, रिश्तेदारों और
पैसों के देस में
न जाने वहां क्या होता है
अब्बा तुम ख़त लिखना
बहन, भाई और मां तो अनपढ़ थे.
सफ़र
रात जब हर चीज़ को चादर उढ़ा दे
ढांप ले काले परों में
आग लपटों-सी ज़बानें
अज़दहे जब अपने अंदर बंद कर लें
तब उसी काले समय में
तुम घरों की क़ब्र से बाहर निकलना
और बस्ती के किनारे
ख़ाब में ख़ामोश बहते आदमी-से
आके मुझको ढूंढ़ना
मैं वहीं तुम सबसे कुछ आगे मिलूंगा
और अंधेरा-सा तुम्हारे आगे-आगे मैं चलूंगा
रोशनी लेकर चलूंगा तो मुझे
तुमसे भी पहले और कोई ढूंढ़ लेगा.
***
9 comments:
फ़ज़ल ताबिश जी यह उम्दा रचनाऐं पढ़वाने का बहुत आभार, आनन्द आ गया.
`मीर का दिल कहां से लाओगे
ख़ून की बूंद तो बचा ली है `
फ़ज़ल ताबिश जी यह उम्दा रचनाऐं पढ़वाने का बहुत आभार, आनन्द आ गया.
घर में पीजै मीर को पढि़ए वहीं सो जाइए
... अपन तो इसी को सालों से अपना कर्तव्य बनाये हैं गीत बाबू! उम्दा ग़ज़लें छांट के लगाईं आपने. आनन्द हुआ.
'घर में पीजै मीर को पढि़ए वहीं सो जाइए'
यही तो काम है
उम्दा पोस्ट!
fazal tabish ki kavita padhne ko kabse betab tha...aapne khwahish poori kr di...aabhar...upanyas to hamne albatta padh liya hai...wh umda hai...
MAZA AA GAYA..Kamal ki shayri hai
Waakayi bade hi jaandaar shabda hain in k. Aap k shabdon me kahen to inka baankapan in k sheron me dekhte banta hai. Waah!
फ़ज़ल ताबिश की शायरी और जीवन शैली ग़ालिब की याद दिलाती है.तंगी और परेशानियों ने उनके लेखन को धारदार बना दिया.उनका फक्कड स्वभाव और खुद पर हँसने की आदत सभी गजलों और कविताओं में दिखाई देती है. रोशनी में कालापन देखने से हम चीजों की तह तक जा सकते हैं.औरों की गलतियाँ गिनाने वाले उपदेशक दूध के धुले नहीं होते.'उस देस में' कविता में पैसे का जल्दी खत्म हो जाना और मौत का बार बार मेहमान की तरह आते रहना मार्मिक और नये बिम्ब हैं. 'सफर' में काले समय में उजाला बनने की प्रेरणा दी गयी है.
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