Monday, August 25, 2008

महमूद दरवेश की डायरी से



बैरूत पर हुए इज़राइली हमले के दौरान लिखी महमूद दरवेश की डायरी के टुकड़े





होटल कमोदोर जहां विदेशी पत्रकारों का हुजूम लगा रहता है, एक अमेरिकी पत्रकार मुझसे पूछता है:
- इन दिनों क्या लिख रहे हैं कवि महोदय?
- मैं अपनी चुप्पी लिख रहा हूं।
- आपका मतलब यह है कि इस वक़्त बंदूक़ों को ही बोलना चाहिए?
- हां, क्योंकि उनकी आवाज़ मेरी आवाज़ से ज़्यादा ऊंची है।
- तो आप क्या कर रहे हैं?
- स्थिरता को पुकार रहा हूं।
- क्या आप यह युद्ध जीत जाएंगे?
- नहीं। अहम बात है डटे रहना। डटे रहना अपने आप में जीत होती है।
- उसके बाद क्या होगा?
- नए युग की शुरुआत।
- फिर आप वापस कविता लिखना कब शुरू करेंगे?
- बंदूक़ों को थोड़ा चुप हो जाने दीजिए। जब मेरी चुप्पी का विस्फोट होगा। चुप्पी, जिसमें ये सारी आवाज़ें घुली हुई हैं। जब मैं अपने लिए एक भाषा तलाश लूंगा।
- तब तक आपकी कोई भूमिका नहीं?
- नहीं, कविता में मेरी इस वक़्त कोई भूमिका नहीं। मेरी भूमिका कविता से बाहर है। मेरी भूमिका वहां होने में है, नागरिकों और लड़ाकों के बीच।

कुछ बुद्धिजीवियों को यह मौक़ा पुराने हिसाब-किताब चुकता करने के लिए सही लगा। वे पत्रकारों के सामने ही एक-दूसरे पर छींटे उछालने लगे। हमें उन पर व्यर्थ में चिल्लाना पड़ा, 'चुप हो जाइए। बकवास बंद कीजिए। बैरूत पर क़ब्ज़ा करने वाले लेखक नहीं हैं। बुरे से बुरा क्या होगा, आपके लेखन को साहित्य नहीं माना जाएगा। अच्छे से अच्छी स्थिति में मान भी लिया, तो इससे आपका लेखन लड़ाकू जहाज़ उड़ाने वाली तोप तो नहीं हो जाएगा।'

पर वे पलटकर बोले, 'नहीं, यही सही समय है यह तय करने का कि कोई कवि या कविता क्रांतिकारी है या नहीं। कविता है, तो उसे इसी समय जन्म लेना चाहिए, वरना उससे जन्म लेने का अधिकार छीन लेना चाहिए।'

मैं फिर चिल्लाया, 'तो फिर आपने होमर को 'ईलियड' और 'ओडिसी' लिखने का अधिकार क्यों दे दिया? लेखको, हर कोई एक ही तरीक़े से प्रतिक्रिया नहीं करता। अगर कोई ठीक युद्ध के बीच में लिख सकता है, तो उसे लिखने दीजिए। कोई बाद में लिखना चाहता है, तो बाद में सही। जहां तक मेरा मानना है, तो वह यह है कि - जो घायल हैं, प्यासे हैं, जो पानी, रोटी या छत की तलाश में भटक रहे हैं, वे आपसे कविता नहीं मांग रहे। जो लड़ रहे हैं, उन्हें अपनी जान की फि़क्र है, आपकी कविता की नहीं। इस समय में सबसे बड़ी चीज़ जो आप कर सकते हैं, वह यह है कि उन प्यासों के लिए बीस लीटर पानी खोज लाइए। रोटी इकट्ठी करके उजड़े हुए लोगों के पास चलिए। इस युद्ध में हम हाशिए पर हैं, नगण्य। इस समय मानवीय प्रतिबद्धता चाहिए लेखको, कलात्मक सुंदरता नहीं।'

कौन हैं वे कवि, जो सर पर मंडराते युद्धक विमानों, बम विस्फोटों, सड़क पर जमा लाशों के बीच कमरे में बैठे कविता लिखते रहते हों?
ये बहस चलती रही। बाहर भी। और भीतर भी।
...
इसके बाद भी पाकिस्तान से आए मेरे पुराने दोस्त फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पूछते हैं, 'सारे कलाकार कहां चले गए?'
'कौन-से कलाकार, फ़ैज़?
'बैरूत के कलाकार.'
'उनका क्या करोगे?'
'भई, उन्हें इस युद्ध की विभीषिका को शहर की दीवारों पर रंगकर दिखाना चाहिए।'
'तुम्हें दिखता नहीं फ़ैज़, शहर में दीवारें बची हैं क्या? सारी दीवारें तो ज़मींदोज़ हो गईं।

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

निश्चित ही जीवन कविता और अन्य किसी भी रचना से अधिक सुंदर है। वही नहीं तो कविता और रचनाएँ किस लिए?

Arun Aditya said...

''कुछ बुद्धिजीवियों को यह मौक़ा पुराने हिसाब-किताब चुकता करने के लिए सही लगा। वे पत्रकारों के सामने ही एक-दूसरे पर छींटे उछालने लगे।''

अरे, यह तो बिल्कुल हमारे देश जैसा दृश्य है। गुजरात पर लिखा कि नहीं, अयोध्या पर लिखा कि नहीं। कश्मीरी विस्थापितों पर लिखा कि नहीं। ऐसे सवाल हर घटना के बाद पूछे जाते हैं। और ऐसे सवालों के जरिये पुराने हिसाब किताब चुकता किए जाते हैं।

महेन said...

अरुण भाई ने सटीक बात कही है। खैर, लिखा जब भी जाए, अगर लिखा हुआ अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाता तो उसका जन्म ही बेकार है। द टिन ड्रम संभवत: उतना मारक नहीं हो पाता यदि वह नाज़ियों के उत्थान या चरम के दौरान लिखा जाता।

pratibha katiyar said...

bade din baad mahmood darwesh ko padha. Shukriya.