Thursday, August 28, 2008

क्‍यों सोचें?

कई बार यही नहीं समझ आता कि हम क्या कर रहे हैं. वे क्या कर रहे हैं, समझना, ऐसे में मुश्किल नहीं जान पड़ता? अपना अमूर्तन हमेशा सुहाता है. उनका अमूर्तन भ्रम में डालता है. जैसे मेरी अमूर्त बातों को, मुंह बिचकाकर या बिराकर निकल लेते हैं आप लोग. लेखक तो होता ही मध्यवर्गीय जीव है, जो लिखता इसलिए है कि अपने भीतर की किसी मुंहबिराऊ मुद्रा से ख़ुद बच निकले और अपनी नागरिक अकर्मण्यताओं और उससे झुंझलाए अपराधबोध को दूसरे में (प्रत्या)रोपित कर आंख मलते विजयीभाव से वाह-वाह की ध्वनियों को टप्पा लेते आते देखे. अक्सर यह प्रत्यारोपण फ़ेल हो गई सर्जरी की तरह होता है, जिसका सारा दोष सॉइल की निरोधी फ़र्टिलिटी के माथे गिरता है. रोपण, सींचन, अंखुअन, स्फुरण जैसी बॉटैनिकल (कितौ बायोटेक्निकल) क्रियाएं होते-होते रह जाती हैं, प्रैक्टिकल के अभाव में पिक्टोरियल डिक्शनरी देख थ्योरी से ही काम-भर का पंखा झल जाता है. बीज-गुरु मन की किसी गांठ में बिसूरते पड़ रहते हैं कितौ लुंगी की गांठ से सरक लेते हैं. वाह-वाह की ध्‍वनि भी ऑडिबल नहीं रह जाती.

और पाठक भी भाभड़ा (कितौ छप्पनटिकली), ऐसा सैडिस्टिक अप्रोच लिए विचरता है कि बेचारा मध्यवर्गीय लेखक आज-इतिहास की न जाने कितनी त्रासदियों पर यौगिक रुदन करता है, और पाठक उस पर पेंसिल कितौ की-बोर्ड से वाह-वाह टीपता, 'इसकी तो ले ली' वाले भाव में एक स्माइली, सरेस-मय, चिपकाकर कल्टी मार लेता है.

विजय किसकी होती है, रो-रोकर आंख मलते विजयीभाव से फिरकीदार वाह-वाही टप्पों को तकते राइटर महोदय की या रोने पर आंख दबाकर खींस निपोरती सरेस-मय स्माइली वाले टीपक-कुलदीपक की... इस पर कभी सोचना नहीं चाहिए.

सोचना तो इस पर भी नहीं चाहिए कि कैसे मारे जाओगे? जम्मू में मुसलमान बनकर या कश्मीर में हिंदू बनकर? म्यूनिख़ में इज़राइली बनकर या गाज़ा में फ़लीस्तीनी बनकर? मुंबई में बिहारी बनकर या उड़ीसा में ईसाई बनकर? बिहार में बाढ़ में बहकर या गुड़गांव में मॉल के मलबे में दबकर? ज़्यादा लोगों के बीच कम बनकर या कम के बीच उपेक्षित भरकम बनकर? तमगे लगाए कलग़ीदार फ़ौजी की तानाशाही में या लहसन-प्याज़ नुमा लोकतंत्रवादी बहुमत की तानाशाही में?

सोच-सोचकर थरूर ने हाथी, बाघ और सेलफोन को जोड़ दिया और बार-बार बताया कि देश का मध्यवर्ग सोचता नहीं, सिर्फ़ शौचता है. कि सोचे बिना शौच के सहारे भी यह मध्यवर्ग कुछ बरसों में पूरी दुनिया पर छा जाएगा, राज करेगा, फिफ्थ एवेन्यू में नया मकान ख़रीदेगा, ट्रैफलगर में कोठी बनाएगा, अंटी दाबकर सबको ठांसेगा और बिना आवाज़ के खांसेगा. लेकिन उसकी वर्तमान राजनीतिक उदासीनता धीरे-धीरे राजनीतिक नासमझी में बदल जाएगी, यह नहीं सोचा कहीं. यह भी नहीं कि दुनिया का भावी सबसे शक्तिशाली मध्यवर्ग अकाल नहीं, एक राजनीतिक मृत्यु मरेगा.

मरना तो है ही, सो सोचना क्या? और मरना इतना सस्ता हो गया है कि सोचना बिल्कुल नहीं चाहिए. दो रुपए की चाय पर छुरा पेट में उतर जाए, या 'फ़ेल होन पर क्यों डांटा' पर बाप की टंगड़ी चिर जाए, कि 'फ़ुटपाथ पर क्यों सोते हो, साहबज़ादे की गाड़ी तो चढ़ेगी ही' से लेकर 'झोपड़ी में क्यों रहते हो, एक दिन तो उखड़ेगी ही' तक, 'ग्राम जोकहरा, जवार भकुरा, जि़ला आरा में रह लो कितौ लैबीरिन्थ, 9, पेडर रोड पर, खाना इसी मुंह है जाना उसी लोक' तक, किसी भी बात पर मरना हो सकता है. इसलिए किसी भी व्यक्ति, परिवार, समूह, समाज, समुदाय, राज्य अथवा राष्ट्र को नहीं सोचना चाहिए. सोचने से लीवर ख़राब होता है, प्रोस्टेट बढ़ जाता है.

सोच लिया, तो क़ै होने लगती है. फिर काग़ज़ के पन्ने हों या वेब के, गन्हाने लगते हैं. फिर क़ै का वर्गीकरण हो जाता है. विशेष गंधों के गंजियाहेपन पर. रंगों की रंगदारी पर. उम्दा, बेहतरीन, आभार, जमाए रखिए, उखाड़ दिया, दिखा दिया, चमका दिया छाप तेल से टीप के दीप बाले जाते हैं. या फिर 'काय ग पाटील बरं हाय काय, काल जे काही पाहिलं ते खरं हाय काय' (क्यों पाटील साब, सब ठीक तो है, एक बात बताइए, जो कल आपको करते देखा, वह सच है क्या) की तर्ज़ पर चमका जाएंगे कि पाटील नाम के बच्चू, तुमने भी सोच के नाम पर बहुत शौच की है. तुम्हारे गन्हाने की जिन्नाती बोतल खोलूं क्या?

सोचालय की दीवार वैताग कर भहरा जाती है. बास्‍टर्ड ऑफ इस्‍तान्‍‍बुल (कितौ गोधरा, जम्‍मू, मेरठ, मुंबई, भिवंडी, बेहरामपाड़ा) को कहां खोजे?

रोपण कहां हुआ, अंखुआया क्या? नहीं, बस टिपियाया. :) :D और कलट लिए.

बीज भी अंखुआता है और कीड़ा भी. जगह अलग-अलग होती है.

बीज-गुरु मन की किसी गांठ से लुंगी की गांठ की यात्रा पर निकलते हैं, बिना दिशाशूल देखे.

सींकदार झाड़ू को छितराकर कमर पर बांध लेने से तो मोर नहीं बन जाएंगे कि बारिश पड़े, तो छमाछम नाच आ जाए. या फिर हथेली पर ही कभी पृथ्वी का पौधा उगाएंगे? धन का पौधा उगते तो कंप्राडोर / कारपारेट जि़ंदगी में बहुत देखा है. पृथ्वी का पौधा बताओ, तो जानें. अब माइकल जैक्सन को कौन समझाए कि दुनिया भर का घाव 'हील' करने को चीख़ रहे हो, जिन्नाती बोतल तो तुम्हारी भी बनी पड़ी है? हम तो अपने हीलों-हवालों में ही रहेंगे. (एक स्‍माइली ब्‍लैक एंड व्‍हाइट- सरेस-मय.)

मन हो तो सुन लीजिए. नीचे लिरिक्स भी हैं. देखिए, कुछ बुझाता है क्या? कुछ अंखुआता है क्या? पर ख़बरदार, सोचिएगा मत. सोचने से लीवर ख़राब हो जाता है. प्रोस्टेट बढ़ जाता है.



Heal The World

There's A Place In
Your Heart
And I Know That It Is Love
And This Place Could
Be Much
Brighter Than Tomorrow
And If You Really Try
You'll Find There's No Need
To Cry
In This Place You'll Feel
There's No Hurt Or Sorrow

There Are Ways
To Get There
If You Care Enough
For The Living
Make A Little Space
Make A Better Place...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

If You Want To Know Why
There's A Love That
Cannot Lie
Love Is Strong
It Only Cares For
Joyful Giving
If We Try
We Shall See
In This Bliss
We Cannot Feel
Fear Or Dread
We Stop Existing And
Start Living

Then It Feels That Always
Love's Enough For
Us Growing
So Make A Better World
Make A Better World...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

And The Dream We Were
Conceived In
Will Reveal A Joyful Face
And The World We
Once Believed In
Will Shine Again In Grace
Then Why Do We Keep
Strangling Life
Wound This Earth
Crucify Its Soul
Though It's Plain To See
This World Is Heavenly
Be God's Glow

We Could Fly So High
Let Our Spirits Never Die
In My Heart
I Feel You Are All
My Brothers
Create A World With
No Fear
Together We'll Cry
Happy Tears
See The Nations Turn
Their Swords
Into Plowshares

We Could Really Get There
If You Cared Enough
For The Living
Make A Little Space
To Make A Better Place...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

6 comments:

anurag vats said...

if u care enough for the living...masla to yahin atka pada hai bhai...

Pratyaksha said...

हील हवाले तो जिन्नाती बोतलों के बाद भी चलेंगे ..महाराज , खाली जिन्न को कब्जे में रखिये ..बाकी तो सब माया है , बीज पेड़ पौधा बीज वाला क्रम भी आउटडेटेड हुआ ,सब शॉर्टकट चलता है, इतना समय कहाँ कि थ्रू प्रॉपर चैनेल वाला लम्बा रास्ता इख्तियार करें ? क्या सोचें कितना सोचें , सोच के बाहर की दुनिया सोच सोच कर जी हलकान करें ?
सुबह सुबह आपने बहुत सोचवा दिया स्माईली सरेस रंगीन दर रंगीन , पूरा टेक्नीकलर संसार दिख गया .. :-D

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

kahan hain log? is roshni men meri 'nyaadhish' vaali kavita padho. aankh khulegi. kranti videh raajya (saala vah kabhi saamrajya raha bhi nahin) mein dekhne kee paramparaa hai na? vagarth vali.

Ek ziddi dhun said...

अब लीवर तो बढ़ गया और प्रोस्टेट भी...

Ek ziddi dhun said...

यारब, न वह समझे हैं, न समझेंगे मिरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको ज़बां और
गालिब को सही दिया है यहां आपने। यह भी तो कहा था कुछ ठसक के साथ-
न सही मेरे अशआर में मानी न सही

Pratibha Katiyar said...

dil jo choo lene wali kavitayen. dil men kahin thahar jane wali...
shukriya. Padhne ki pyas ka ye thikana paakar bahut achcha laga.