Wednesday, August 6, 2008
जो चाहो, मानो मुझे...
मुझे जो चाहे, माना जा सकता है।
जीवन में कुछ लोग अभी भी ऐसे हैं, जिन्हें लगता है, चलते-चलते कहीं गिर न जाऊं। और कुछ ऐसे भी हैं, जो लड़ पड़ते हैं, कभी नहीं गिरेगा। मैं दोनों को समझा दूं कि गिरना कभी भी हो सकता है। और क़तई ज़रूरी नहीं कि लड़खड़ाहट हर बार चेतावनी की तरह ही आए।
कुछ हैं, जो अभी भी भला मानते हैं और कुछ पशुवत। हालांकि ये भी अतिरेक हैं। हमेशा भले रहना संभव नहीं और पशुता आवाह्न पर आती नहीं। दोनों को ही निर्बंध मान लूं मैं?
चाहो, तो मुझे घृणा भी कह सकते हो, चाहो तो प्रेम भी। हालांकि अपना नाम मैंने प्रेम से मिलता-जुलता रखा था और अब भी इतिहास की चोर गलियों में जब मैं भटकता हूं, लुकते-छिपाते, तो जाने कब से, सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकी और अपने नाम की एक पुकार को, अपने पीछे दौड़ता पाता हूं।
जिन्होंने मुझे घृणा नाम दिया था, उन्हें कभी किसी गली से लुकते गुज़रने की ज़रूरत नहीं पड़ी.
गुज़ारिश है कि मुझे ख़ुशी न कहें। वैसे, मुझे पता है, इस गुज़ारिश का कोई मतलब नहीं, क्योंकि मैं बहुत पीछे तक घूम आया हूं, वाहीक पार नदियों के किनारे तक, अवेस्ता की जगह तक, मगध में बहुत रहा मैं, जब महामाया गुज़री थीं और थोड़ी देर बाद दुनिया ने छोटे-से सिद्धार्थ का रुदन सुना था, तो उस वक़्त लुंबिनी के मार्ग पर मैं पेड़ बनकर रहा करता था, एक दिन कटकर मैं एक नाव बन गया और बहते-बहाते काशी पहुंचा था, फिर काग़ज़ बनकर मैं मुग़लों के दरबार से लेकर उनके रद्दीगोदाम तक में रहा, मैं डि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में भी रहा और इतिहास के भुला दिए गए क्षणों में, थके लोगों के पसीने और पराजित लोगों के लहू में रहा। सो, मुझे सारे खेल पता हैं। इसीलिए मैं कहता हूं, मुझे ख़ुशी मत कहना। क्योंकि मुझे पता है, उदासी ही जीवन की टेक होती है। हम सड़क के किनारे ख़ुशी की राहबत्ती तले उदासी का कोई घिस चुका सिक्का खोज रहे होते हैं। उसकी क़ीमत का कोई सूचकांक किसी महानगर में नहीं पाया जाता.
आप चाहें, तो मुझे लाश कह सकते हैं, और चूंकि मैं कहानियां सुनाता हूं, कभी-कभार कविता भी, तो यह मेरे होने के बहुत क़रीब होगा, क्योंकि मैं देख आया हूं, संसार की सारी कहानियां, सारी कविताएं दरअसल हमें लाशें ही सुनाती आई हैं अब तक।
इतिहास की गलियों में आपको मेरी हांफ सुनाई देगी। मैं हमेशा बचने के लिए दौड़ा। सच कहूं, कभी हथियार लेकर किसी के पीछे नहीं दौड़ा, हथियार मेरे पीछे दौड़ते आए। मैंने कभी कोई हत्या नहीं की। जो हत्या नहीं करते, उनकी हत्या होना तय होता है क्या?
फिर भी, आप चाहें, तो मुझे हत्यारा कह सकते हैं। क्योंकि मुझे पता है, सिकंदर और पोरस की कहानी तक्षशिला के पास चौपाल पर एक चरवाहे ने साथियों के बीच नंबर बढ़ाने के लिए यूं ही उड़ा दी थी। और मुझे जितने भी नाम दिए गए हैं, उन सबके पीछे किसी का प्यार, दुलार, स्वप्न, महत्वाकांक्षा, हिकारत और घृणा रही है.
आप मुझे झूठा भी कह सकते हैं, क्योंकि मुझसे पहले कही गई बातों को सच माना जा चुका है और सच की ठुंसी बोरी से बातें लत्तों की तरह झांक रही हैं।
एक सेकंड! मेरा पुराना दमा उभर रहा है। मेरे बीमार फेफड़ों को सांस की इजाज़त दे दीजिए, महामहिम!
अरे, यह तो बहुत पुरानी बात है। हर चीज़ के लिए इजाज़त मांगना, पाने के लिए रिरिया देना और पाकर ख़ुशी की राहबत्ती में थोड़ी चमक और बढ़ा लेना, बहुत पुरानी रिवायत हैं। क्या कहूं इसे, ये कोई नागरिक पराभव है या फिर एक नागरिक उदासीनता?
आप नहीं समझे न? मैं भी अभी तक नहीं समझ पाया।
ख़ैर, मैं कह रहा था, आप मुझे कुछ भी कह सकते हैं, प्रेम से लेकर घृणा तक, पेड़ से लेकर मछली तक। इतिहास से लेकर आधुनिक तक। पर मुझे विजेता मत कहिए। विजेता कभी छिपकर चलते हैं क्या? मैं एक पराजित मनुष्य हूं। और मनुष्य भी तो सिर्फ़ अपनी ही नज़र में हूं। वो भी कब तक हूं, किसे पता. _
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
13 comments:
मनुष्य भी तो सिर्फ़ अपनी ही नज़र में हूं। वो भी जब तक हूं, तब तक ही हूं।
ज़रूरी बात । प्यारी बात । सलीके की बात।
अजित भाई की बात से पूरी तरह सहमत.
ज़रूरी बात । प्यारी बात । सलीके की बात।
इन्सानियत का एह्सास कभी ना भूलेँ हम
वैचारिक यात्रा :
"वाहीक पार नदियों के किनारे तक, अवेस्ता की जगह तक, मगध में बहुत रहा मैं, जब महामाया गुज़री थीं और थोड़ी देर बाद दुनिया ने छोटे-से सिद्धार्थ का रुदन सुना था, तो उस वक़्त लुंबिनी के मार्ग पर मैं पेड़ बनकर रहा करता था, एक दिन कटकर मैं एक नाव बन गया और बहते-बहाते काशी पहुंचा था, फिर काग़ज़ बनकर मैं मुग़लों के दरबार से लेकर उनके रद्दीगोदाम तक में रहा, मैं डि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में भी रहा और इतिहास के भुला दिए गए क्षणों में, थके लोगों के पसीने और पराजित लोगों के लहू में रहा।"
बहुत अच्छी लिखी है आपने
-लावण्या
मैंने इसे एक बार पढ़ा, दो बार पढा, बार-बार पढा, कूछेक अनुच्छेद तो झकझोर देने वाले थे, मसलन, "जाने कब से, सुने जाने के इंतज़ार में हवा में भटकती सिसकी और अपने नाम की एक पुकार को, अपने पीछे दौड़ता पाता हूं।"
इतिहास का सच्चा बोध, इस हद तक कि वो भोगा हुआ सत्य लगने लगे, व्यक्ति को सदियों तक सालती हैं। इतिहास अपने आप को दोहराने के क्रम में न केवल अपने अतीत के प्रति निर्मम हो जाता है, बल्कि वह सत्य को अपनी मुट्ठी में भींचकर खत्म करता जाता है,इस पीड़ा ने मनुष्य को अकेला कर दिया है , जिसे वह अकेले भोगने के लिए अभिशप्त है।
गद्य की यह भाषा यहॉ कविता की लय में मालूम पड़ती है, इस एकालाप में एक जादुई आकर्षण है।
मैं कहना चाहूँगा कि पढ़ने के बाद मुझे आनंद की अनुभूति तो बिल्कुल ही नहीं हुई, क्योंकि यह आनंद के लिए लिखा ही नहीं गया। इसमें जो सार्वभौम पीड़ा का विस्मित सम्मोहन है,वह मुझे अब तक कहीं घसीट-सा रहा है।
बहुत उम्दा गद्य. अगरचे इसे स्थायी भाव मत बनाओ.
मुझे लगता है कि अब तक की पढ़ी कुछ अच्छी पोस्टों में से एक है ये पोस्ट। पता नहीं कितने विचार इसमें समाए हैं। इस पर सिर्फ कह सकता हूं अलग और सही विचार। और कुछ नहीं कहुंगा।
एकदम्मे सटीक.
लेकिन मै तो आपसे ईर्ष्या करता हूं... नही जानता कि ये घृणा में बदलेगी या प्रेम में ।।
अद्भुत लिखा है आपने.
बहुत ही उम्दा.
विजय भाई की बात से पूर्ण सहमति.
विचार आजाद हैं...इन्हे ग्राह करने वाले कम ही लोग है... हर कोई ना पकड़ पाता है तिस पर दम्भ भी है की हमने कई और चीजे पकड़ी हैं, गैर जरुरी चीजे..... कई विचारोतेजक विचार
गीत जी, आपको पढ़कर अच्छा लगा। आपमें छिपी अनन्त सम्भावनाओं को देखकर आपसे काफी उम्दा चीजें मिलने की आशा है । विजय जी का इशारा कि इसे स्थायी भाव न बनाए जाए,एक दम उचित है ।
प्रेम से लेकर घृणा तक, पेड़ से लेकर मछली तक। इतिहास से लेकर आधुनिक तक। पर मुझे विजेता मत कहिए। विजेता कभी छिपकर चलते हैं क्या? मैं एक पराजित मनुष्य हूं।
बहुत सुन्दर लिखा है। सरल शब्दों में जीवन का सम्पूर्ण निचोड़ रख दिया। बधाई
नाम में क्या रक्खा है - रूह की कहानी हो या कविता की रूह - ऐसा और भी हो तो बिल्कुल हर्ज़ नहीं - और बार बार पढा भी जाय - लगा अलग हिस्सों की अपनी अपनी अलग जान है - बहुत बढ़िया - साभार - मनीष
Post a Comment