Saturday, August 16, 2008

एलियन

एलियन

उगता हुआ सूरज उस औरत की तरह लगता है हमेशा
जो सुबह उठकर चाय के लिए पानी गर्म करती है

कार, बस, ट्रेन और हवाई जहाज़ में
विंडो सीट पर बैठने की जि़द करता हूं हमेशा
बाहर देखते हुए नए सिरे से जांचता हूं पुरानी बात
कि धरती और आसमान सब जगह एक ही हैं

रुदन को पवित्र मानते हुए भी
खेल से बाहर रोती बच्ची को खिझाता हूं हमेशा
उसकी पीठ पर मारता हूं एक धौल
इस तरह अभ्‍यस्त हो जाएगी वह
पीठ पर वार झेलने की रिवायत से

छोकरों से भरी जीप में से मस्ती में निकला कोई हाथ
धक्का देकर गिरा देता है साइकल से
क़तार में पीछे से मारता है कोई सिर पर टपली
उठकर झाड़ता हूं कपड़े सहेजता हूं साइकल
सिर घुमाकर पीछे नहीं देखता
आंखें मूंद बुदबुदाता हूं कोई प्रार्थना हमेशा
तुम तक लौट जाएंगी तुम्हारी गालियां और सारी गोलियां

जिनको कभी ग़ुस्सा नहीं आता
अचरज करते हैं
आत्मा वाले मुस्कराते हैं
मेरे लिए नहीं खुलते आत्मा के दरवाज़े कभी
उसकी चाभी को कामुक स्त्रियों ने वक्षों के बीच छुपा रखा है

गाल, ज़मीन और उंगली की पोर पर पड़े आंसू को
ग़ौर से देखता हूं फिर डायरी में नोट करता हूं
आंसू की कोई परछाईं नहीं होती
वह पृथ्वी पर बाहर से आया कोई जीव है

पेंटिंग : सिद्धार्थ

9 comments:

Pratyaksha said...

और अगर होती कोई परछाई ? फिर ?

ravindra vyas said...

गीत, बधाई। दिल को गहरे तक छू गई तुम्हारी यह कविता।

Ashok Pande said...

यह आत्मा के दरवाज़े की गुम चाभी खोजने की लगातार कोशिशें जारी रहें ... क्योंकि सब कुछ इस पृथ्वी से ही पाया जाना है गीत भाई!

सुन्दर कविता!

दिनेशराय द्विवेदी said...

हमेशा की तरह एक सुंदर कविता।
********************************
रक्षा-बंधन का भाव है, "वसुधैव कुटुम्बकम्!"
इस की ओर बढ़ें...
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकानाएँ!

Tushar Dhawal Singh said...

Geet Ji
Aapko padhte huwe kah sakta hoon ki ab ek arsa ho chala hai... arsa yani samay,samay yani state of mind. Aapki kavitaon mein bhav ke mati apne geele saundhepan se man ko bhigo jati hai. ikkisvi sadi mein bhav aur bhavna ka hi to akal aata deekh raha hai. Is taralta ko banaye rakhen. Jo jimmedari apne os ki boond par dali hai wah aap par bhi hai.Bhaavon mein samvet ka sweekar... Hamari peedhi ke kaviyon mein aapse kafi ummiden hai.
Shubh Kamnayen
Tushar Dhawal

Geet Chaturvedi said...

@प्रत्‍यक्षा, फिर दुनिया में दिल के बहलाने को ख़याल न होते शायद.

Pratyaksha said...

गीत , उन्हीं परछाईयों को तलाशने के खूबसूरत बहाने न होते फिर

Arun Aditya said...

गाल, ज़मीन और उंगली की पोर पर पड़े आंसू को
ग़ौर से देखता हूं फिर डायरी में नोट करता हूं
आंसू की कोई परछाईं नहीं होती
वह पृथ्वी पर बाहर से आया कोई जीव है ।

मर्म को स्पर्श करने वाली कविता।
और हाँ, यह हरा- भरा टैम्पलेट भी खुबसूरत है।

Neelima said...

बहुत गहरी कविता !पढकर प्रसाद का "आंसू" याद आई !